अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थऐसी सम्पत्ति से है जो परमार्थ के लिए दान कर दी गई हो । परमार्थ कार्यों में मजहबी कार्यक्रम भी शामिल किए जा सकते हैं। लेकिन दान करते समय दान करने वाले को यह भी स्पष्ट करना होगा कि अब वह या उसके वारिस इस सम्पत्ति को वापस नहीं ले सकेंगे। जो सम्पत्ति कुछ निश्चित समय के लिए दान में दी जाए और दान देते समय ही स्पष्ट कर दिया जाए कि पांच साल के लिए इस सम्पत्ति की आय का उपयोग परमार्थ के लिए किया जा सकता है, उसके बाद सम्पत्ति दान करने वाले के पास वापस लौट जाएगी तो वह वक्फ नहीं माना जाएगा। परोक्ष रूप से वक्फ सम्पत्ति अब दान करने वाले की रहती ही नहीं। इसलिए वापस लेने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। यदि वह वक्फ वापस लेना भी चाहे तो यह सम्भव नहीं है। जो व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को वक्फ के लिए देता है, उसे वाकिफ कहते हैं। वक्फ की गई सम्पत्ति को प्रबंध करने के लिए वाकिफ किसी मुतावली (न्यासी) की व्यवस्था करेगा। इस व्यवस्था के लिए मुतावली जो मेहनत करेगा, उसकी एवज में उसी वक्फ की आमदनी का कुछ हिस्सा मिल सकता है। कुल मिला कर वक्फ किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है। वह अपनी सम्पत्ति के प्रबंधन के लिए किसी मुतावली अर्थात न्यासी के हवाले कर देता है और उसका प्रयोग केवल परमार्थके लिए हो सकता है। लेकिन वह अपनी सम्पत्ति किसी ऐसे मुतावली को भी दे सकता है जो पहले ही किसी सम्पत्ति का परमार्थ के लिए प्रबंधन कर रहा हो । यानी पहले से ही बने हुए किसी ट्रस्ट को भी सम्पत्ति दान की जा सकती है, यदि दान का उद्देश्य एक समान हो। यह पद्धति हिंदोस्तान में इस्लाम के पैदा होने से भी पहले से चली आ रही है। भारत में लाखों मंदिर, अनाथालय, गोशालाएं, पाठशालाएं और गुरुकुल इत्यादि इसी पद्धति से चलते थे और अभी भी चलते हैं। अंग्रेजों के आने से पहले भी मस्जिदें, दरगाहें, मदरसे, यतीमखाने वगैरह भी इसी पद्धति से चलते थे । वक्फ, वाकिफ और मुतावली शब्द क्योंकि अरबी भाषा के हैं, इसलिए लगता है कि शायद यह कोई नई योजना है जो इस्लाम के पैदा होने के बाद से ही दुनिया में प्रकट हुई है। लेकिन वक्फ को लेकर असली काला धंधा 1857 के बाद हुआ और यह ब्रिटिश सरकार द्वारा विशेष उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए किया गया। 1857 में आजादी की पहली लड़ाई में सभी भारतीयों ने मिल कर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी।इसमें देसी मुसलमान भी शामिल थे। यहां तक एकता थी कि स्वतंत्रता संग्रामियों ने उसी मुगल वंश के बहादुरशाह को हिंद का बादशाह घोषित कर दिया जिस मुगल वंश से देश को आजाद करवाने के लिए शिवाजी मराठा, महाराणा प्रताप, गुरु गोबिंद सिंह, बंदा बहादुर, लचित बडफूकन जैसों ने अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। उद्देश्य केवल इतना था कि एकता बनी रहनी चाहिए। लेकिनदुर्भाग्य से इस स्वतंत्रता संग्राम में भारत की हार हुई और भारत पर ब्रिटेन का प्रत्यक्ष कब्जा हो गया। 1885 में कांग्रेस का जन्म हुआ और उसका उत्तर देने के लिए अंग्रेजों ने मेजर आप्रेशन से 1905 में मुस्लिम लीग को पैदा किया। 1857 के संग्राम पर मंथन किया गया। एक बात अंग्रेजों को स्पष्ट होने लगी थी कि भारत में अरब, तुर्क व मुगल (एटीएम) मूल के मुसलमान संख्या में तो आटे में नमक के बराबर हैं, लेकिन भारत में से उनकी सत्ता का अंत हो जाने से उनका कष्ट हजार गुणा बढ़ा हुआ है। वे यह भी समझ चुके हैं कि अब वे अपने बलबूते भारत पर दोबारा कब्जा नहीं कर सकते। अब उनके लिए एक ही रास्ता बचा है कि डूबते जहाज में से जो बच जाए वही गनीमत है । उनकी अपनी सत्ता का जहाज तो डूब ही चुका था। अब केवल उन्हें तिनकों का सहारा चाहिए था। ये तिनके देने में अंग्रेजों को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। पहला तिनका मुस्लिम लीग थी, जो अंग्रेजों ने उनको 1905 में दिया था। मुस्लिम लीग पर कब्जा विदेशी मूल के शेखों और सैयदों का ही था। भारत के देसी मुसलमानों का उससे कुछ लेना-देना नहीं था। लेकिन ब्रिटिश सरकार की योजना देसी मुसलमानों को एटीएम मूल के मुसलमानों के शिकंजे में कसना था। उसके लिए मुस्लिम लीग बना भी ली। लेकिन उसके लिए पैसे का बंदोबस्त भी करना जरूरी था। अंग्रेज सरकार अपनी ओर से पैसा दे सकती थी, लेकिन अंग्रेज यहां का पैसा इंग्लैंड ले जाने के लिए आए थे, न कि यहां के कामों पर खर्च करने के लिए। इसका एक ही तरीका हो सकता था। देश भर में फैले मदरसों, वक्फों, मस्जिदों, दरगाहों, तुर्काक व मुगल शासन काल के दौरान इन विदेशी मूल के बादशाहों द्वारा रखी गई अरबों की सम्पत्तियों का नियंत्रण जनादेश एटीएम मूल के शेखों और सैयदों के हवाले कर दिया जाए। उससे दो लाभ होंगे। ये सैयद और शेख अंतिम दम तक अंग्रेज सरकार का समर्थन करेंगे। दूसरा ये देसी मुसलमानों पर नियंत्रण रखेंगे ताकि वे आजादी के आंदोलन से दूर रहें। तीसरी वक्फ सम्पत्तियों के केन्द्रीयकरण से एटीएम मूल के मुसलमानों के हाथ में अपार ताकत आ जाएगी और भारत में ही मजहब के नाम पर एक पक्ष खड़ा हो जाएगा। चौथा स्थानीय देसी मुसलमानों के हाथ से दरगाहों, मस्जिदों के प्रबंधन में हिस्सेदारी की संभावना सदा के लिए खत्म हो जाएगी और वे कभी भी स्वयं को विदेशी मूल के शेखों और सैयदों के कब्जे से मुक्त होने के बारे में सोचना भी बंद कर देंगे। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अंग्रेज सरकार ने मुस्लिम लीग की स्थापना के सात-आठ साल बाद ही वक्फ बोर्डों की स्थापना के कानून बना दिए। इस बोर्ड में कुल मिला कर गिनती के सदस्य होते हैं। वे मोटे तौर पर एटीएम मूल के सैयद, तुर्कया मुगल ही होते थे। इनके हाथ में देश की करोड़ों की सम्पत्तिका कब्जा दे दिया गया। बाद में जब मुस्लिम लीग, ब्रिटिश सरकार की साजिश और कांग्रेस की जल्दी सत्ता प्राप्ति की भूख से भारत का एक हिस्सा पाकिस्तान के नाम से अलग हो गया तो जो मुसलमान हिंदोस्तान छोड़ कर वहां चले गए, उनकी यहां रह गई सम्पत्ति का प्रश्न पैदा हुआ।