हर वर्ष हम कार्तिक मास की अमावस्या तिथि को दीपावली का पावन त्योहार बहुत ही हर्ष, खुशी, उमंग व उल्लास के साथ मनाते हैं। त्योहार कोई भी हो, हंसी- खुशी, समृद्धि, सकारात्मकता, पवित्रता व असीम ऊर्जा का प्रतीक होता है। आज भी दीपावली मनाई जाती है, पहले भी मनाई जाती थी लेकिन समय का रंग हमारे सभी त्योहारों पर ऐसा चढ़ गया है कि अब हर त्योहार आधुनिकता, शहरीकरण, दिखावे, बनावटीपन व पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगते चले जा रहे हैं, और दीपावली का त्योहार भी इन सबसे अछूता नहीं रहा है। दीपावली (संस्कृतः दीपावलिः – दीप + आवलिः = पंक्ति, का अर्थ ही पंक्ति में रखे हुए दीपकों से होता है, लेकिन अब दीपावली पर मिट्टी के दीपक कम, चाइनीज़ लाइटें, लड़ियां, रंग-बिरंगे बल्ब एलईडी लाइटें अधिक जलतीं नजर आतीं हैं। दीपावली रौशनी का त्योहार है, जो हमारे जीवन में रौशनी लाता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि दिवाली के त्योहार का धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व है। प्रकाश का यह पर्व हम सभी को सीख देता है कि केवल बाहरी चकाचौंध ही नहीं, अपने मन के भीतर भी प्रकाश उत्पन्न करना जरूरी है। रौशनी के इस पवित्र त्योहार पर पंच तत्वों के प्रतीक मिट्टी के दीपक आज जलते तो हैं लेकिन धीरे-धीरे इनकी संख्या में लगातार कमी देखी जा रही है। जो बात मिट्टी के दीपकों में है वह चाइनीज़ लाइटों, झालरों व बल्बों में कहां है ? हमारी भारतीय सनातन संस्कृति और हमारे शास्त्रों में मिट्टी के दीपक को तेज, शौर्य और पराक्रम का प्रतीक माना गया है। जब भगवान श्रीराम चौदह साल के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे, तब अध्योध्यावासियों ने मिट्टी के दीये ( घी के दीपक ) जलाकर उनका स्वागत व अभिनंदन किया था। वास्तव में, दिवाली पर मिट्टी के दीपक जलाने के पीछे धार्मिक महत्व भी है। मिट्टी के दीपक न केवल हमारे पर्यावरण व प्रकृति का ध्यान रखते हैं, अपितु यह हमारी सादगी, संपन्नता, सुख-समृद्धि, शांति व ऐश्वर्य के भी प्रतीक हैं। यह बात तो हम सभी जानते हैं कि इस संपूर्ण ब्रह्मांड की रचना पंचतत्वों से हुई है, जिसमें जल, वायु, आकाश, अग्नि और भूमि शामिल हैं। वास्तव में, मिट्टी का दीपक भी इन पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करता है। मिट्टी का दीपक वर्तमान का प्रतीक माना गया है, जबकि उसमें जलने वाली प्रज्ज्वलित ‘लौ’ भूतकाल का प्रतीक होती है। जब हम रुई की बाती डालकर दीप प्रज्जवलित करते हैं तो वह आकाश, स्वर्ग और भविष्यकाल का प्रतिनिधित्व करती है। मिट्टी मंगल ग्रह का प्रतीक है और मंगल साहस और पराक्रम का। तेल शनि भगवान का प्रतीक है। वहीं पर मिट्टी के दीपक में घी समृद्धि व शुक्र का प्रतीक माना जाता है। आज दीपावली इलैकट्रिक लाइटों का त्योहार हो गई है। सच तो यह है कि आधुनिकता, शहरीकरण की चकाचौंध में हमारे प्राचीन रीति-रिवाज आज बहुत पीछे छूट रहे हैं। हिंदू धर्म में मिट्टी के दीपकों का बहुत महत्व है। पूजा-अर्चना से लेकर जन्म-मरण के विधि-विधानों में मिट्टी के दीपक जलाने की परंपरा हमारे देश में रही है। दीपक में ईश्वर का वास माना जाता है, इनमें देवी-देवताओं का तेज होता है, सकारात्मक ऊर्जा होती है। ऋवेद काल से लेकर हर युग व काल में दीपकों का महत्व किसी से छुपा नहीं हुआ है। हमारे वेदों, उपनिषदों में गाय घी से दीपक जलाने के अनेक वर्णन मिलते हैं। वर्णन मिलता है कि द्वापर युग में कृष्ण के नरकासुर राक्षस वध के बाद वहां के वासियों ने दीपक जलाकर जीत की खुशी को प्रकट किया था। वास्तव में दीपक आत्मा के परमात्मा से मिलन का मार्ग खोलता है। मिट्टी का दीपक वास्तु दोष को समाप्त करने की अद्भुत क्षमता रखता है। आज घरों, दुकानों, प्रतिष्ठानों में रंग-बिरंगी लाइटें, झालरें भले ही जगमगाती हों लेकिन मिट्टी के दीपकों की आभा और नूर कुछ अलग ही दमकता व झलकता है। मिट्टी के दीपक जब जलते हैं तो वे हमें किसी दिव्यलोक का सा अहसास कराते हैं। मिट्टी के दीपक दुःख, आलस्य, निर्धनता को दूर करके जीवन में सुख-समृद्धि, स्वास्थ्य, खुशी, स्फूर्ति, आनंद, ऐश्वर्य लाते हैं। आज मिट्टी के दीपकों से भले ही महंगाई के कारण, आधुनिकता व पाश्चात्य सभ्यता-संस्कृति के प्रभाव के कारण, मिट्टी के दीपकों में तेल -बाती डालने के झंझटों के कारण भले ही मोह भंग हो गया हो, लेकिन मिट्टी के दीये के मुकाबले इलैक्ट्रोनिक लाइटें, झालरें लड़ियों के प्रकाश की आभा कहीं भी नहीं ठहरती है। मिट्टी के दीपक जहां कीट-पतंगों का नाश करते हैं और हमारे पर्यावरण को शुद्ध बनाते हैं वहीं इलैक्ट्रोनिक लाइटें यह सब संभव नहीं कर पातीं हैं। आज कृत्रिम लाइटें, झालरें, लड़ियां कुम्हारों के रोजगार पर भी आफत बनकर टूट रही है। चाइनीज़ लाइटों, झालरों, लड़ियों के उपयोग से हम अपने देश की अर्थव्यवस्था पर भी कहीं न कहीं प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डाल रहे होते हैं। पर्यावरण संरक्षण तो दूर की बात इसलिए रह जाती है क्योंकि दिवाली पर होने वाले पटाखों के प्रदूषण को हम मिट्टी के दीपक जलाकर रोकते नहीं है। हमारा संपूर्ण ध्यान आधुनिक चकाचौंध पर होता है। हमें यह याद रखना चाहिए कि मिट्टी का एक छोटा सा दीया गहरे अंधकार में भी उजास की लौ जलाकर रखता है। मिट्टी से मानवजाति का जन्म-जन्मांतर का रिश्ता है और हम इस रिश्ते को लगातार भूल रहे हैं। मिट्टी हमारे पर्यावरण, हमारे परिवेश का अहम् और महत्वपूर्ण हिस्सा है। भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीला हो या माता पार्वती के जन्म की कहानी, मिट्टी का हर युग में वर्णन मिलता है। भारतीय संस्कृति में दीपों का इतिहास अति प्राचीन है। विशेषज्ञों व इतिहासकारों के मत के अनुसार शुरूआत में दीपक पत्थर को तराशकर बनाए गए होंगे, लेकिन धीरे-धीरे सभ्यता के विकास के साथ मिट्टी के दीपक बने। जानकारी मिलती है कि दीयाबत्ती या मोमबत्ती का आविष्कार भी 5 हजार साल से पहले हो गया था और इसके लिए वनस्पति तेल या जानवरों की चर्बी का इस्तेमाल होता था । ऐसी जानकारी मिलती है कि घरों में रौशनी के लिए मशालों, दीपकों और लालटेनों का विकास प्राचीन भारत, चीन और मिस्र की सभ्यताओं में हो गया था । पुरात्तत्विदों को सिंधु घाटी सभ्यता से आगे हर सभ्यताओं व विभिन्न राजवंशो के खुदाई में विभिन्न प्रकार के दीये प्राप्त हुए हैं।