नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संविधान की प्रस्तावना से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्दों को हटाने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी। याचिका पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी, वकील अश्विनी उपाध्याय और बलराम सिंह ने दायर की थी। प्रस्तावना में समाजवाद को शामिल करने की शुरुआत 1976 में प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी के कार्यकाल के दौरान 42 वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से की गई थी। भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति पीवी संजय कुमार की सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने दोहराया है कि संसद के पास इसकी प्रस्तावना सहित संविधान में संशोधन करने का अधिकार है। बेंच ने समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या को संबोधित करते हुए भारतीय संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता पर जोर दिया। इसमें यह भी कहा गया कि इन सिद्धांतों से संबंधित नीतियां बनाना सरकार का विशेषाधिकार है। सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता संविधान की मूल संरचना का अभिन्न अंग हैं। शीर्ष अदालत ने कहा कि हालांकि इन शब्दों की अलग-अलग तरीकों से व्याख्या की जा सकती है, लेकिन इन्हें पश्चिमी व्याख्याओं के बजाय भारतीय संदर्भ में समझा जाना चाहिए। सीजेआई ने कहा कि याचिकाओं पर विस्तृत सुनवाई की जरूरत नहीं है। सीजेआई ने कहा कि दो अभिव्यक्तियां समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष 1976 में संशोधनों के माध्यम से बनाई गई थीं और तथ्य यह है कि संविधान को 1949 में अपनाया गया था, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । यदि स्वीकार किया जाता है तो पूर्वव्यापी तर्क सभी संशोधनों पर लागू होंगे। 1976 में इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पेश किए गए 42वें संवैधानिक संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द शामिल किए गए थे। इस संशोधन ने प्रस्तावना में भारत के विवरण को संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्यसे बदलकर कर दिया। स्वामी ने अपनी याचिका में दलील दी है कि प्रस्तावना को बदला, संशोधित या निरस्त नहीं किया जा सकता है।