भारत में सत्ता प्राप्त नहीं करनी, लेकिन उन्हें भारत को कमजोर करना है ताकि वह विश्व राजनीति और सभ्यताओं के संघर्ष में झांकने की भी हिम्मत न करे । इसके लिए अमरीका व कनाडा सरकार पिछले कुछ दशकों से कार्यरत हैं । इन दोनों देशों में पंजाब के कुछ लोगों को भारत के खिलाफ संगठित किया जा रहा है । भारतीय दूतावासों पर हमले होते हैं । इंदिरा गान्धी के हत्यारों को महिमामंडित करते हुए सार्वजनिक झांकियां निकाली जाती हैं । इस बार राहुल गान्धी भारत के प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। इस वाक्य को एक दूसरे प्रकार से भी कहा जा सकता है कि इस बार कुछ देशी-विदेशी शक्तियां राहुल गान्धी को आगे करके, उनकी आड़ में अपनी व्यक्तिगत या अन्य प्रकार की स्वार्थ सिद्धि प्राप्त करना चाहती थीं। इसके लिए उन सब ने मिल कर पूरा जोर भी लगाया। लेकिन दुर्भाग्य से उनकी योजना या इच्छा पूरी नहीं हुई। वैसे केवल स्पष्टीकरण के लिए राहुल गान्धी को प्रधानमंत्री बनाने के पीछे देशी और विदेशी ताकतों का उद्देश्य अलग भी होता है। देशी शक्तियां या फिर वे लोग जो राहुल गान्धी को घेरे हुए हैं, उनका स्वार्थ तो ज्यादा से ज्यादा उतना ही होता है कि राहुल प्रधानमंत्री होंगे तो सत्ता में कुछ हिस्सा उनको भी नसीब होगा । इसलिए इसको व्यक्तिगत स्वार्थ ही कहा जा सकता है। लेकिन विदेशी शक्तियों का मामला दूसरा है। उन्होंने भारत में सत्ता प्राप्त नहीं करनी, लेकिन उन्हें भारत को कमजोर करना है ताकि वह विश्व राजनीति और सभ्यताओं के संघर्ष में झांकने की भी हिम्मत न करे। इसके लिए अमरीका व कनाडा सरकार पिछले कुछ दशकों से कार्यरत हैं। इन दोनों देशों में पंजाब के कुछ लोगों को भारत के खिलाफ संगठित किया जा रहा है। भारतीय दूतावासों पर हमले होते हैं। इंदिरा गान्धी के हत्यारों को महिमामंडित करते हुए सार्वजनिक झांकियां निकाली जाती हैं। भारत को तोडने के संकल्प लिए जाते हैं। उत्तरी अमरीका की सरकारें इन सभी भारत विरोधी शक्तियों को प्रत्यक्ष-परोक्ष सहायता देती हैं। उत्तरी अमरीका के इन देनों देशों की सांस्कृतिक, मज़हबी और राजनीतक पूंछ इंग्लैंड से जुड़ी रहती है, क्योंकि ब्रिटिश उपनिवेशों को संगठित करके ही इन देशों का गठन हुआ था । अपने समय में इंग्लैंड सरकार भी, देश छोडने से पहले भारत को विभाजित करने वाली ताकतों को संगठित कर रही थी । इसके लिए मोहम्मद अली जिन्ना उसके मोहरे बने हुए थे। लेकिन ब्रिटिश सरकार जानती थी कि कांग्रेस को विश्वास में लिए बिना देश को विभाजित नहीं किया जा सकता । अन्ततः कांग्रेस इंग्लैंड के माऊंटबेटन और श्रीमती माऊंटबेटन के चंगुल में फंस ही गई और उसने बाकायदा दिल्ली में पार्टी की विशेष बैठक बुला कर 14 जून 1947 को भारत विभाजन का प्रस्ताव पारित किया । उस समय पंडित जवाहर लाल नेहरु की उम्र 57 साल के आसपास थी। बहुत से इतिहासकार आज भी इस रहस्य को सुलझाने की कोशिश करते रहते हैं कि आखिर खान अब्दुल खान के सख्त विरोध के बावजूद नेहरु भारत विभाजन के पक्ष में कैसे खड़े हो गए? इसका उत्तर नेहरु ने स्वयं ही परोक्ष रूप से दिया है। उनका कहना था कि यदि हम भारत विभाजन के लिए सहमत न होते तो बीस-पच्चीस साल तक और संघर्ष करना पड़ता, जेलों में जाना पड़ता, लेकिन हमारी उम्र इतनी हो गई थी कि इतने लम्बे काल तक संघर्ष करना सम्भव नहीं था। यानी तब तक नेहरु की उम्र लगभग 90 साल की हो जाती। देश बंटने से भी बच जाता और आजाद भी हो जाता, लेकिन 90 साल की उम्र में देश के प्रधानमंत्री नेहरु न हो पाते, कोई दूसरा कांग्रेसी होता, यह नेहरु को स्वीकार नहीं था। इसलिए उन्होंने सत्ता की खातिर देश विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। बाबा साहिब अंबेडकर कांग्रेस की या नेहरु की इस मंशा को शुरू में ही समझ गए थे, इसलिए उन्होंने दशकों पहले कह दिया था कि कांग्रेस देश की आजादी के लिए नहीं, बल्कि सत्ता के लिए लड़ रही है । लगता है इतिहास आज फिर अपने आपको दोहराता हुआ उसी मोड़ पर पहुंच गया है। 2004 के आम चुनाव में भाजपा की पराजय हुई और कांग्रेस ने डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई । वे 2014 तक प्रधानमंत्री रहे। कहा जाता है, उनकी सरकार में सत्ता व नीति के सूत्र सोनिया माईनो गान्धी के पास रहते थे । जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, उस समय राहुल गान्धी की उम्र 32-33 साल के आसपास थी । तब इस राज परिवार को स्वयं ही लगा होगा कि इतनी कम उम्र में भारत जैसे विशाल देश का प्रधानमंत्री बनना राहुल गान्धी के लिए सम्भव नहीं होगा । इटली होता तो अलग बात थी। उसके बाद मौका 2009 में आया। उस समय राहुल भी 37 साल के हो गए, लेकिन यह उम्र भी कम ही थी । इसलिए मनमोहन सिंह को ही प्रधानमंत्री बनाए रखना श्रेयस्कर माना गया। उस समय मनमोहन सिंह ने कहा भी था कि फिलहाल राहुल गान्धी मंत्रीपद ले लें ताकि उन्हें प्रशासन का अनुभव भी हो जाए। लेकिन मंत्री बनना शायद इस परिवार को अपमानजनक लगा होगा। मनमोहन सिंह जी ने तो यहां तक भी कह दिया था कि जब मुझे कहा जाएगा, मैं राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री का पद छोड़ दूंगा। लेकिन मात्र 37 साल की उम्र आड़े आ रही थी। इस राज परिवार का दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि जब राज परिवार को लगा कि 2014 में राहुल गान्धी 44 साल के वयस्क हो जाएंगे और प्रधानमंत्री पद पर उनकी ताजपोशी कर दी जाएगी ( उनके पिता 40 साल की उम्र में प्रधानमंत्री बने थे), तब भारत ने भाजपा को जिता ही नहीं दिया, कांग्रेस को 543 सीटों वाली लोकसभा में महज 44 सीटों पर पहुंचा दिया। लेकिन तभी से राज परिवार किसी भी तरह देश की सत्ता पर कब्जे के लिए व्यग्र हो गया । वर्ष 2019 में राहुल गान्धी की उम्र पचास के आसपास पहुंच गई, लेकिन लोकसभा में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 44 से बढ़ कर पचास-पचपन से ज्यादा नहीं बढ़ पाई। वर्ष 2024 तक आते-आते राज परिवार की सत्ता प्राप्ति के लिए व्याकुलता इतनी बढ़ी की मुस्लिम लीग तक से समझौता कर लिया । केजरीवाल तक को नमन किया। राहुल गान्धी की उम्र पचपन को छू गई, लेकिन कांग्रेस सांसदों की संख्या सौ को नहीं छू पाई । इतिहास 1947 के मोड़ पर ही पहुंच गया है। उस वक्त पंडित जवाहर लाल नेहरु की उम्र 57 साल की थी और उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के लिए लार्ड माऊंटबेटन और श्रीमती माऊंटबेटन के मोहरे बन कर देश विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। अब उन्हीं के वंशज राहुल गान्धी उम्र के उसी मोड़ पर पहुंच गए हैं। वर्ष 2029 को जब अगले लोकसभा चुनाव होंगे, तो उनकी उम्र साठ साल के आसपास हो जाएगी। राज परिवार में भूकम्प आ रहा है। कांग्रेस के राजकुमार राहुल गान्धी अमरीका जाकर सिखों को बता रहे हैं। कि भारत में उनकी पगड़ी, कड़ा और गुरुद्वारा संकट में हैं। भारत को तोड़ने वाली तमाम देशी-विदेशी ताकतों ने राहुल के इस कथन को उदाहरण बना लिया है।