वायनाड त्रासदी में छुपा सच का वायनाड हो या उत्तराखंड का जोशीमठ, सभी ने पिछलेकुछ सालों में भीषण त्रासदियों को भुगता है। विडंबना यह है कि ये त्रासदियां विकास के अंधे राजनेताओं, नीति-निर्माताओं और बिल्डर- ठेकेदारों के कॉकस की पहल पर बाकायदा जानते – बूझते रची जा रही हैं। देश के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक, समाजशास्त्री, कानूनविद, यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट सरीखी सर्वोच्च अदालत ने भी विकास की मौजूदा हवस के खिलाफ अपनी- अपनी तरह से आवाज उठाई है, लेकिन ‘विकास यात्रा’ बदस्तूर जारी है। इस आलेख में इसी विषय को खंगालने की कोशिश करेंगे। केरल के वायनाड में 30 जुलाई की रात्रि भूस्खलन से हुई त्रासदी के बाद राज्य सरकार एक अगस्त को जारी एक आदेश तुरंत वापस ले लिया। आदेश में कहा गया था कि वैज्ञानिक इस त्रासदी के संदर्भ में अपनी राय सार्वजनिक नहीं करें एवं अपने तक ही सीमित रखें। साथ ही वैज्ञानिक इस बाबत कोई अध्ययन करना चाहें तो वे पहले सरकार से अनुमति लें। इस आदेश के पीछे राज्य सरकार का भय प्रतीत होता है। शायद पहले किसी वैज्ञानिक ने इस त्रासदी के बारे में कोई चेतावनी या सलाह दी होगी जिसे अनदेखा किया गया होगा । इस हरकत से सरकार कटघरे में तो आ ही जाती है । वायनाड पहाड़ी जिला है एवं पश्चिमी घाट का हिस्सा है। पश्चिमी घाट की 1400 किलोमीटर लंबी पर्वत श्रृंखला केरल समेत छह राज्यों से गुजरती है । यह यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल है। विश्व के आठ सर्वाधिक जैव-विविधता वाले स्थानों (हॉट स्पाट्स) में एक पश्चिमी घाट भी है। पश्चिमी घाट के पर्यावरण को लेकर सरकार ने पहले भारतीय विज्ञान संस्थान (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेगलुरू) में पारिस्थितिकी विज्ञान केंद्र के संस्थापक प्रोफेसर माधव गाडगिल की अध्यक्षता में ‘पश्चिमी घाट पारिस्थितिक विशेषज्ञ पैनल’ (डब्ल्यूजीईईपी) गठित किया था। इस पैनल अगस्त 2011 तक अपनी रिपोर्ट तैयार कर सरकार को सौंप दी थी, लेकिन पर्यावरण मंत्रालय ने लंबे समय तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं की और न ही इसे सार्वजनिक चर्चा के लिए जारी किया। प्रोफेसर गाडगिल ने अपनी रिपोर्ट में पश्चिमी घाट के 164280 हेक्टेयर इलाके को पूरी तरह प्रतिबंधित करने के अलावा विकास के नाम पर की जाने वाली विनाशकारी गतिविधियों पर तत्काल रोक लगाने की अनुशंसा की थी। गाडगिल समिि पर लीपापोती करने की गरज से सरकार ने अगस्त 2012 में इसरो यानी भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन प्रमुख प्रोफेसर के. कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में एक और समिति का गठन कर दिया। यह समिति दरअसल एक उच्च स्तरीय कार्यसमूह था जिसका काम गाडगिल समिति की रिपोर्ट की समग्र और बहु विषयक तरीके से जांच करना था। इस समिति ने 60000 हेक्टेयर क्षेत्र को पारिस्थिति संवेदनशील क्षेत्र (इकोलाजिकली सेंसिटिव जोन) बनाने का सुझाव दिया था। दोनों ही समितियों के सुझावों पर ध्यान नहीं देकर केन्द्र सरकार ने सम्बन्धित राज्य सरकारों को संवेदनशील क्षेत्रों में बड़े उद्योग एवं व्यापक खनन कार्य को छोड़कर व्यावसायिक एवं विकास गतिविधियां करने की अनुशंसा की । पर्यावरण की परिस्थितियों को ध्यान में नहीं रखकर की गई गतिविधियों से इस पर्वतमाला के कई भाग उजाड़ एवं जर्जर हो गए। वायनाड के संदर्भ में पढने में आया कि यहां जिस क्षेत्र में भूस्खलन हुआ, वहां कुछ वर्षों पहले बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए थे। वर्ष 2022 के एक अध्ययन में बताया गया कि वर्ष 1950 से लेकर 2020 के मध्य तक वायनाड जिले में 62 प्रतिशत वन क्षेत्र समाप्त हो गया था। वायनाड की ढीली मिट्टी, पेड़ों की कटाई एवं जलवायु बदलाव से कम समय में आयी तेज बारिश से चौरल पर्वत पर तीन बार भूस्खलन हुआ जिससे चोलियार नदी के जलागम क्षेत्र (केचमेंट एरिया ) में बसे चार गांव मलबे में दब गए। केरल विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार वर्ष 2018 से राज्य में तेज बारिश से भूस्खलन के क्षेत्र 3.46 प्रतिशत बढ़े हैं। केन्द्र के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अनुसार पिछले सात वर्षों में आए 3782 भूस्खलन में 59.2 प्रतिशत दर्ज किए गए हैं। इम्पीरियल कॉलेज ऑफ लंदन की शोधकर्ता मरियम जकारिया का कहना है कि जलवायु बदलाव के कारण वायनाड में वर्षा का पैटर्न बदलने से भूस्खलन का खतरा बढ़ा है। भारतीय ऊष्ण कटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्था, पुणे के जलवायु विशेषज्ञ आरएम कौल का कहना है कि केरल का आधा हिस्सा पहाडियों तथा पर्वत क्षेत्र से घिरा है, जहां ढलान 20 डिग्री से ज्यादा है जिससे भारी बारिश में भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है। वायनाड त्रासदी जलवायु बदलाव से पैदा बारिश के पैटर्न में परिवर्तन के साथ-साथ समय-समय पर वैज्ञानिकों की चेतावनी एवं विशेषज्ञ समितियों की रिपोर्ट नहीं मानने का एक सामूहिक मिला-जुला परिणाम है। केदारनाथ, चमोली, जोशीमठ एवं सिक्किम आदि त्रासदियों के पीछे भी यही कारण है। वर्ष 1976 की मिश्रा समिति की रिपोर्ट से लेकर 2012 तक जोशीमठ पर पांच वैज्ञानिक रिपोर्टें आयी थीं जिनमें धंसाव के कारण एवं बचाव के उपाय बताए गए थे, परंतु किसी पर भी ध्यान नहीं दिया गया । जलवायु बदलाव के वर्तमान समय में इस प्रकार की त्रासदियों से बचने के लिए जरूरी है- केन्द्र व राज्य सरकारें विषय विशेषज्ञों की सलाहों को महत्व दें। सामान्यतः सरकारें इनसे इसलिए कतराती हैं कि वे कई बार सरकार की नीतियों के विरोध में होते हैं। आमतौर पर सत्ता तंत्र हमेशा विशेषज्ञों से बेरुखी रखकर अपने सेवानिवृत्त या कार्यरत अधिकारियों, ठेकेदारों एवं भवन निर्माताओं की सलाहों को ज्यादा महत्व देता है। विशेषज्ञों को महत्व देकर कुछ कार्य पिछली सरकारों ने किए थे जो निश्चय ही प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय हैं।