नवंबर मास दशगुरु परंपरा के नवम गुरु श्री तेग बहादुर जी के अमर बलिदान का मास है। उन्होंने विदेशी साम्राज्य की मानव विरोधी नीतियों का सामना करते हुए स्वेच्छा से बलिदान दिया था। इसलिए वे हिंद की चादर कहलाए। जिस सप्त सिन्धु क्षेत्र को दशगुरु परम्परा में सर्वाधिक प्रभावित किया था, वही सप्त सिन्धु क्षेत्र सबसे ज्यादा पददलित था और उसी क्षेत्र ने मुगल सत्ता का ने सर्वाधिक विरोध किया था। बाद में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की कुटिल नीतियों से उसी सप्त सिन्धु क्षेत्र का बहुत बड़ा भूभाग हिन्दुस्तान से अलग हो गया था। भारत की सांस्कृतिक महत्ता को देखते हुए आज यूरोप और यूरोप का मसीहा अमेरिका भारत के लिए उन्हीं कुटिल नीतियों में लगा हुआ है। पहले यह काम इंग्लैंड करता था, आज उसकी नई उगी चार दूसरी आंखें सक्रिय हो गई हैं। इस पृष्ठभूमि में गुरु तेग बहादुर जी का अमर बलिदान आज इक्कीसवीं सदी में भी हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। अशान्ति की अव्यवस्था का यह वातावरण सन् 1500 से 1700 तक व उससे आगे के इतिहास का स्मरण है । परन्तु इस काल की एक सौभाग्यशाली आश्चर्यजनक बात यह रही कि इस लम्बे काल में अत्याचारों व संघर्षों की कहानी समानान्तर चलती रही। प्रत्येक काल खण्ड में मुगलों के इन अत्याचारों व अन्यायों को ललकारने वाला कोई न कोई आता रहा। फिर चाहे उसे शीश कटवाना पड़ा, चाहे बालू पर तपना पड़ा। बाबर से प्रारम्भ हुए मुगल शासन के साथ ही पंजाब में गुरुओं की परम्परा प्रारम्भ हुई, जिसने प्रत्येक स्तर पर मुसलमानों का सामना किया। आध्यात्मिक स्तर पर भी और सैनिक स्तर पर भी । इस परम्परा के पहले गुरु नानक देव जी बाबर के समकालीन थे और अन्तिम व दशम गुरु गोबिन्द सिंह जी औरंगजेब के समकालीन थे। गुरु नानक ने तो वास्तव में आध्यात्मिक क्षेत्र में ही विचार मन्थन किया था, परन्तु ज्यों-ज्यों मुगल शासकों अत्याचार बढ़ते गए, त्यों-त्यों पंजाबियों में अध्यात्मवाद के साथ-साथ शौर्यवाद व सैनिकवाद भी प्रवेश पा गया। मुगल राजाओं द्वारा भी गुरुओं पर क्रूरता का चक्र तेजी से चलता रहा। ऐतिहासिक गुरु परम्परा में नवें स्थान पर श्री गुरु तेगबहादुर जी का नाम आता है । गुरु तेगबहादुर जी भी गुरु परम्परा को निभाते हुए शोषित व निम्न वर्गों के लिए सारी आयु संघर्ष करते रहे। शासकों के अन्याय तथा अत्याचारों के विरुद्ध गुरु तेग बहादुर जी सदा छाती ठोककर खड़े होते रहे। दलितों के लिए गुरु जी सदा तत्पर रहते थे। दुःखी जनों के कष्ट निवारणार्थ गुरु तेगबहादुर जी सदा आगे रहे। देश के जिस कोने से भी गुरु जी ने दलितों की पुकार, दुःखियों की आह सुनी, तुरन्त गुरु जी वहां उपस्थित हुए। उत्तर हो या दक्षिण, पूर्व हो या पश्चिम, जिस स्थान पर भी भारत के लोगों को मुसलमानों ने संतप्त किया, वहीं उन्हें गुरु जी की तेग की धार सहनी पड़ी। समाज भलाई के इस कार्य में गुरु जी ने गृहस्थी के मोह व घरबार की बातों को कभी मार्ग में नहीं आने दिया । सम्पूर्ण हिन्दुस्तान अशान्त था । अत्याचारों का दौर चल रहा था। धर्म परिवर्तन का चक्र अपने पूरे वेग से घूम रहा था । इस्लाम का कवच धारण करने पर ही रक्षा सम्भव थी। हिन्दू विरोधी इस वातावरण से हिन्दू विचलित हो गया । परन्तु फरियाद किसके आगे करे ? कौन सहोदरघाती औरंगजेब को चुनौती दे सकेगा? कौन पिता के हत्यारे औरंगजेब को ललकार सकेगा? औरंगजेब का विकराल शासन तन्त्र चल रहा था पूरे जोर से, पूरे वेग से। कश्मीर के ब्राह्मण अत्याचारों से पीड़ित होकर आनंदपुर आए, गुरु तेगबहादुर जी के पास फरियाद लेकर, औरंगजेब के पापों का हिसाब लेकर। पिता के पास पुत्र भी बैठा था। वह इन ब्राह्मणों को उत्सुकता के साथ देख रहा था। ब्राह्मणों ने अत्याचारों की लम्बी गाथा बताई। अकल्पनीय अत्याचारों की यथार्थता का बोध कराया। धर्म परिवर्तन की मदान्धता का वेग बताया । हिन्दू जाति पर हो रहे अत्याचारों को सुनकर गुरु तेग बहादुर गम्भीर हो गए। आंखें अपने आप बन्द हो गईं। गम्भीर विचार में लीन हो गए। गोबिन्दराय एकटक उनके मुख की ओर देखते रहे । एक क्षण, दो क्षण, तीन क्षण, गोबिन्दराय ने मौन तोड़ा, ‘पिताजी आप इतने चिन्तित क्यों हो गए हैं? हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों को सुनकर आप मौन क्यों हो गए हैं। बोलिए पिताजी।’ पुत्र वाणी सुनकर पिता ने धीरे-धीरे आंखें खोली । चेहरा तेज से अभिभूत हो रहा था। सम्पूर्ण दृष्टि पुत्र के मुख पर जमाते हुए पिता बोले, ‘नहीं बेटा, मैं मौन नहीं था । परन्तु इन अत्याचारों को बन्द करवाने के लिए किसी महान आत्मा के बलिदान की आवश्यकता है, किसी महान आत्मा के ।’ ‘तो आपसे महान कौन हो सकता है पिताजी ?’ गोविन्दराय एकदम बोल उठा, बिना एक क्षण का विलम्ब किए। पिता जिस बात को इतने समय से सोच रहे थे, पुत्र ने एक क्षण में उसका निर्णय कर दिया। पिता ने पुत्र को छाती से लगा लिया । इस समय गोबिन्दराय की आयु केवल साढ़े आठ वर्ष की थी। इतनी कम आयु में इतने महान त्याग का उदाहरण इतिहास में नहीं मिलता। इस दुर्दान्त एवं भयावह संकट काल में सिक्ख जाति का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व गोबिन्दराय के सशक्त कन्धों पर छोडक़र नगरवासियों को धैर्य बंधाकर गुरु तेगबहादुर जी दिल्ली की ओर चल पड़े। वह दिल्ली, जहां से औरंगजेब का खूनी शासन चहुं दिशाओं में फैलता था। जहां से अत्याचारों की अग्नि प्रज्वलित होकर सम्पूर्ण भारत को झुलसा रही थी। इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) कभी धर्मपरायण पांडवों की राजधानी रहा, आज वह म्लेच्छों की आसुरी क्रीड़ा का प्रांगण बना हुआ था । असुरों से लोहा लेने गुरु तेगबहादुर जी दिल्ली पहुंच गए। 11 मार्गशीर्ष सम्वत् 1723 (नवम्बर 1675 ) को दिल्ली के चांदनी चौक में औरंगजेब ने गुरु जी को शहीद करवा दिया। इतिहास के एक अध्याय का अंत हो गया, लेकिन संघर्षों के लम्बे अध्यायों का मार्ग वह खोल गया। गुरु तेग बहादुर जी का बलिदान आज भी भारतवासियों को सीख देता है। उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। बलिदानों की यह परंपरा जारी रखते हुए उनके पुत्र गुरु गोबिंद सिंह जी ने भी भारतीय समाज, हिंदू धर्म और भारतीय राष्ट्र के लिए काफी कुछ किया। उनके दो पुत्र मुगलों से लड़ाई में शहीद हो गए, तो दो को जिंदा ही दिवारों में चिनवा दिया गया।