
मैंने जब उनसे 144 सालों बाद आने वाले महाकुंभ के तथ्य की सत्यता जाननी चाही तो वह मुझे घूरते हुए बोले, ‘इसका अर्थ है कि तुम अभी भी ओजस्वी प्रधानमंत्री और सूर्य की तरह दैदीप्यमान आदित्यनाथ योगी महाराज की इस आयोजन के प्रति निष्ठा पर संदेह कर रहे हो । भले किसी धर्म शास्त्र में 144 वर्षों बाद आने वाले महाकुंभ के बारे में कुछ न लिखा हो, पर अगर वे दोनों बोल रहे हैं तो यह सत्य दुनिया का आखिरी सत्य होगा । काहिल और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना नौकरशाही ने महाकुंभ की सारी व्यवस्थाओं का कबाड़ा कर दिया। अगर मीडिया इस महाकुंभ को न संभालता तो आज समस्त विश्व में भारत की थू-थू हो रही होती । गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम स्थल पर ब्रह्मा की तपस्थली प्रयागराज की सजावट को शब्दों में बांधना आसान नहीं। रात में बिजली की रोशनी में मेला क्षेत्र किसी देवलोक का आभास देता था। सुबह से लेकर शाम तक कई बार झाड़ू लगता रहा, सफाई होती रही। पर यह बात दीगर है कि कचरे और अपशिष्ट वस्तुओं के निपटान के लिए सरकार के पास न पहले कोई योजना थी, न अब है। हो सकता है कि गंगा स्नान के बाद गंगा मैया किसी ब्यरोक्रेट या नेता को स्वप्न में कूड़े के निस्तारण की कोई तरकीब बता दें | पर अति अति विशिष्ट व्यक्तियों का आगमन प्रयागराज को शीतकालीन राजधानी जैसा दरजा अवश्य दिला रहा है। भाषणों में तागण भले कह रहे हों कि गंगा में डुबकी लगाने वाले सब समान हैं। पर मैं भी टिकट लेने के बाद स्वयं कई घाटों पर भटकने के बाद डुबकी लगा पाया। कहीं कोई सुनने वाला नहीं। पर ऊपर वाले का कमाल है कि मेला चल रहा है। अफवाहों का बाज़ार गर्म है। कई भद्र पुरुष में ख़ुलेआम सुविधाओं के लिए घूस लेने का दावा करने वाले हैं। पर मेला प्रबंधन से जुड़े अधिकारी कहते हैं,’आल इज वेल।’ इसमें कोई संदेह नहीं कि मेले में धार्मिक कृत्य और अन्न क्षेत्र चलाने के लिए ज़मीन या सुविधाएं पाना किसी का संवैधानिक अधिकार नहीं । पर हर युग में सत्ता दरबार की एक ही शर्त होती है कि उस सत्ता प्रतिष्ठान में आपकी पहुंच कैसी है। नहीं तो क्या यह संभव था कि किसी को साठ बीघे भूमि मिल जाती और किसी को पांच सौ फुट भी नसीब नहीं होती । अब ऊंच-नीच तो हर जगह होती है। देवलोक में भी और घरों में भी । लेकिन सरकार का बस यही ख्वाब है कि यूनेस्को से अमूर्त धरोहर के रूप में चिह्नित कुंभ महाकुंभ जैसे आयोजन के माध्यम से सनातन वैभव से पूरा जगत् परिचित हो । ‘ देश के नेतृत्व और महाकुंभ के प्रति उनकी अखंड निष्ठा देखकर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। किसी व्यक्ति, संस्थान या सिस्टम का भक्त होने के लिए व्यक्ति का तार्किक नहीं मूर्ख होना ज़रूरी है। पर अंधभक्ति के लिए आदमी का मूर्ख नहीं, अति मूर्ख होना ज़रूरी है । अगर व्यक्ति मूर्ख या अति मूर्ख न हो तो स्वामी रामतीर्थ की तरह कुंभ जाकर भी गंगा में स्नान नहीं करता, बल्कि मनसा देवी की पहाड़ी पर बैठकर चिंतन करता है और अर्ध कुंभ (पौन कुंभ), पूर्ण कुंभ या महाकुंभ जैसे आयोजनों के औचित्य और सार्थकता पर प्रश्न अवश्य करता है । जिस समय मैं उनसे चर्चा कर रहा था, उस वक्त दो वीडियो एक्स पर वायरल थे, दोनों में गंगा में नाले का गंदा सीवेज वाला पानी गिरने के दृश्य हैं। इन दोनों वीडियो में संगम क्षेत्र में गंदगी साफ दिख रही है । पर लोग कहते हैं कि साल 2013 के कुंभ में भी गंगा का पानी दुर्गंधयुक्त था। मेले की व्यवस्था भी सरकार संभालती है और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट भी । ऐसे में कौन किससे सवाल पूछेगा और कौन जवाब देगा। प्रदूषण बोर्ड कुछ भी कहता रहे। राजा से सवाल नहीं पूछे जा सकते।
