लोगों को अवसाद में घिरकर जीवन समाप्त करते देखना इन दिनों आम हो गया है। व्यक्तिगत कारण हों या ऑफिस से ज्यादा अपेक्षाएं पाल लेना, ऐसी घटनाओं का केंद्र-बिंदु यही होता है कि हम वास्तविकता की अनदेखी कर देते हैं । निराशा या क्रोध हमें तभी घेरते हैं, जब दूसरे व्यक्ति से तथाकथित अपेक्षित उत्तर नहीं मिल पाता। सच पूछा जाए तो हमारी खुशियां अपेक्षाओं की मोहताज हैं। बेटे का आशानुरूप रिजल्ट आया तो खुशियां दोगुनी, अन्यथा नहीं । समयानुकूल प्रमोशन मिला तो खुश, नहीं तो उदासी ही उदासी । असली और आंतरिक खुशी का एहसास करना हो तो अपनी अपेक्षाओं को नियंत्रण में रखना सीखें। तभी अपनी असफलताओं से दुःख नहीं, बल्कि सीख मिलेगी। वास्तव में हम अपना आकलन कर खुद को सीमाओं में बांध लेते हैं, पर दूसरों से हम हद से ज्यादा उम्मीद रखने लगते हैं। हालांकि दूसरा पहलू यह भी है कि उम्मीदें हमें कर्मपथ पर अग्रसर करती हैं। अपेक्षाएं मनोबल बढ़ाती हैं। विद्यार्थी अपने माता- पिता की आकांक्षाओं के अनुरूप ढलने में ऊर्जा के साथ- साथ प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। कर्मचारी अपने मालिक की आकांक्षाओं के अनुरूप ढलकर कंपनी की प्रगति में सहायक होते हैं। बस, इन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए बहुत ज्यादा दबाव नहीं बनाना चाहिए। अपेक्षा किसी की योग्यता के विपरीत भी नहीं बनानी चाहिए। इसलिए जिससे उम्मीदें रखते हैं, उसकी योग्यता और कार्यक्षमता की पहचान कर लेनी चाहिए।