
अंग्रेजों ने चर्चा के लिए स्कैंडल प्वाइंट बनाए या कॉफी हाउस में आपसी बातचीत का माहौल पैदा किया। इसमें दो राय नहीं कि चाय पर चर्चा की लंबाई पूरे देश को जीत सकती है। विषय कोई भी हो, चाय के सामने उबल सकता है। चाय बेझिझक, बेतकल्लुफ व बेकायदा हो सकती है, लेकिन कॉफी नहीं। एक दिन चाय व कॉफी के बीच भारतीयता व राष्ट्रीयता तक के सवाल उलझ गए। चाय ने चुस्की भरते ही कॉफी को घूर कर देखा और उलाहना देते हुए कहा, ‘क्या तू भी ऐसे घूंट खींच सकती है। कॉफी ठहरी सभ्य और संभ्रांत, लिहाजा उसने सहज और तरल भाषा में जवाब दिया, ‘मैं अंतिम घूंट को भी शांत रखना चाहती हूं, कभी पीने वाले पर दबाव नहीं डालती। इसलिए मेरे प्यालों में प्यास बची रहती है।’ चाय वैसे तो खूब उबल कर आई थी, लेकिन कॉफी की शांति पर अंदर ही अंदर उबलने लगी। वैसे उबलने की संगत निभाती चाय ने अधिकांश भारतीयों को उबलने का कोई न कोई बहाना दिया है। यह इसलिए कि चाय का अपना कोई घर- बार तो है नहीं, जहां दिल किया वहीं उबलने लगी, पेड़ के नीचे या पहाड़ के ऊपर। दूसरी ओर कॉफी को हमेशा हाउस चाहिए, इसलिए पीने वाले मानते हैं कि कॉफी किसी सुलझी हुई गृहिणी की तरह शालीन और समर्पित है। एक समय में एक ही काम करती है, जबकि चाय पीने वाले एक साथ बहुत कुछ कर सकते हैं। चाय का क्या, जले भुने लोग पी लेते हैं और दबे- कुचले भी। यही वजह है कि जो देश चाय पीते हैं, उनके बाशिंदे कुछ भी कर सकते हैं। दरअसल किसी व्यक्ति की योग्यता चाय की प्याली बता सकती है। चाय न होती, तो लोग सात समुद्र पार न करते, बल्कि इमिग्रेशन की वजह भी यही है। अब अगर ट्रंप कुछ घुसपैठिया टाइप प्रवासी भारतीयों के खिलाफ दिखाई दे रहे हैं, तो वहां भी मसला मसाला चाय का है। ट्रंप ठहरे कॉफी पीने वाले, वह क्या जानें कि अदरक की चाय का स्वाद क्या होता है। हम हिंदोस्तानी चाय पीते-पीते बड़े-बड़े काम कर लेते हैं। हरियाणा के किसी गांव के किसी खोखे पर उबली चाय ने ही ये विमर्श पैदा किया होगा कि अमरीका जाने के लिए डंकी रूट पकड़ने का साहसी काम किया जाए। उधर गुजरात की चाय अगर देश की सत्ता जीत सकती है, तो अमरीका किस खेत की मूली । इसलिए जिसने चाय के ज्यादा घूंट पीये, विदेश चला गया। अब हमारे विदेश मंत्री को चाहिए कि वह अपने हाथों से एक-दो प्याली अदरक वाली चाय ट्रंप को पिला दें और फिर देखें सारी विदेश नीति कैसे बदल जाएगी। सारे देश को मिलजुल कर कोशिश यह करनी होगी कि ट्रंप से कॉफी छुड़वा कर चाय की प्याली थमा दी जाए। पिछले दिनों यह सर्वे हो गया कि भारतीय चुनावों में चाय की भूमिका क्यों बढ़ गई। दरअसल भाजपाइयों ने चाय केवल पी नहीं, बल्कि उसे पिलाया भी बड़े इत्मिनान से । कांग्रेस को कॉफी हाउस बाहर निकलने की फुर्सत ही नहीं मिली। जिस दिन राहुल गांधी अपनी चाय को पीने लायक बना पाएंगे, पार्टी के आगे किसी की सत्ता नहीं बचेगी। देश चाय पर निवेश करता है। मजदूर से नौकरीपेशा तक, हर कोई चाय पर निवेश कर रहा है। चाय सरल है, इसीलिए इस देश के अधिकांश लोग इसके घूंट के साथ किसी भी बात पर यकीन कर लेते हैं। कॉफी पीने वाले यूं ही अर्बन नक्सल नहीं हुए, वे जो पी रहे हैं, उस तरह से देश महान नहीं बनता । दूसरी ओर चाय पीने वाले देश के लिए यकीन करते हुए इसे ‘विश्व गुरु’ मानते हैं । प्रयागराज के महाकुंभ पर यकीन न हो तो कॉफी पी लीजिए, वरना वहां हर पहुंचने वाले ने चाय के भरोसे तीर्थ यात्रा कर ली। कुछ न मिले तो चाय पी लीजिए, वरना मिजाज में इसे भर लीजिए।
