एक महाकुंभी से मुलाकात

एक महाकुंभी से मुलाकात
एक महाकुंभी से मुलाकात

फिर भी अभी मैंने हार नहीं मानी थी। बात आगे बढ़ाने के लिए मैं पुनः बोला, ‘झुन्नू जी, इस महाकुंभ के मेला क्षेत्र में पहुंचना और वहां से निकलना आसान नहीं। इसके लिए आवश्यक है कि आप अति-अति विशिष्ट व्यक्ति या वीवीआइपी हों। केवल विशिष्ट या वीआइपी होने भर से काम नहीं चलेगा। मंत्री, जज, आईएएस-आईपीएस, सेना या अर्धसैनिक बल के अधिकारी होने से इतना तय हो जाता है कि आप कम से कम गंगा में गिरते सीधे सीवेज की मार से बाहर रहेंगे। मेला क्षेत्र में आपका भव्य शिविर होना चाहिए। जूना या निरंजनी अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर की तरह या शंकराचार्यों के शिविरों की तरह शिविर अकड़ में खड़ा होना चाहिए हो या फिर शिविर रामानंदाचार्यों जैसा झन्नाटेदार होना चाहिए। हाथ भर के जगद्गुरु या धर्माधिकारी होने भर से काम नहीं चलेगा ।’ झुन्नू जी कहने लगे, ‘देखो जी, शास्त्रों में स्पष्ट वर्णन है कि आदमी को अपने पिछले कर्मों के आधार पर ही वर्तमान जन्म मिलता है। अगर आप साधारण श्रेणी में आते हैं तो यह आपके पिछले जन्मों का पाप है। आम जनता के लिए पुरातन काल से ही कुंभ और माघ मेलों में धक्के खाने की परंपरा रही है। यूं भी आम आदमी की किस्मत में धक्कों के अलावा लिखा ही क्या होता है। बस में धक्के, ट्रेन में धक्के यहां तक कि हवाई अड्डे पर भी धक्के, अस्पताल में धक्के, दफ्तरों में धक्के, हर जगह धक्के ही धक्के। हर आदमी पुतिन, ट्रंप, मस्क, अडानी, अंबानी, शाह या मोदी तो नहीं हो सकता। साल 1989 के कुंभ की मौनी अमावस्या पर मैं अपनी दादी को लेकर आया था। उनके उम्र भर के पापों से मुक्ति दिलवाने के लिए। हमें तब भी ख़ूब पैदल चलना पड़ा था। हमने तो गंगा के किनारे ही डुबकी लगा कर ‘हर- हर गंगे’ कर ली थी। पर अब फितूर है संगम में ही डुबकी लगाने का, तो खाओ धक्के । धक्का-मुक्की में भगदड़ होने पर अगर मोक्ष मिल जाए तो कहना ही क्या। स्वर्ग का सीधा टिकट, पुण्यात्माओं को ही नसीब होता है। अख़बार में रिपोर्ट छपी थी कि केवल 27 दिन में सवा करोड़ वाहन महाकुंभ पहुंचे। मीडिया द्वारा महाकुंभ का चौबीस गुणा सात धंतारा जाने से श्रद्धालुओं की में दिनोंदिन बढ़ोतरी होती रही। सोशल मीडिया इनफ्लुएंशर्स ने गोदी मीडिया को भी पीछे छोड़ दिया। रही-सही कसर माइक लेकर घूमने वाले चैनलिया पत्रकारों और प्रिंट मीडिया ने पूरी कर दी। धड़ाधड़ ब्रेकिंग, धड़ाधड़ । कोई लुटिन्यस से आया मंत्री था तो कोई आइटियन बाबा या नागा साधु, कोई बंजारन या कोई विदेशी । मीलों चलने के बाद पसीने में नहाए आम आदमी के चेहरे पर मीडिया वह आध्यात्मिक तेज देख लेता है जो उसे किसी वीवीआईपी के मुखमंडल पर नजर नहीं आता।’ वह सांस लेने के लिए रुके तो मैंने चर्चा का रथ आगे बढ़ाया, ‘कुछ भी कहिए मेला तो आस्थावानों का है। जनश्रुति है कि संगम की रेती चारों पदार्थ देने वाली है । भले अपना सिर कुतर्क की रेती में डूबा हो, पर संगम की रेती धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाली है। पर मेरी समझ में यह नहीं आता कि लोग इतने पाप करते ही क्यों हैं कि गंगा में नहाने की नौबत आए। शरीर का मैल तो घर के बाथरूम में भी साफ़ हो जाता है।

एक महाकुंभी से मुलाकात
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