
द्वार दया का जब तू खोले, पंचम सुर में गूंगा बोले, अंधा देखे, लंगड़ा चल कर पहुंचे काशी रे।अर्थात् हे प्रभु जब तेरी दया का द्वार खुलता है तो गूंगा भी पंचम स्वर में बोलने या गाने लगता है, अंधा देखने लगता है। और एक लंगड़ा व्यक्ति भी चलकर काशी जा पहुंचता है। कहने का तात्पर्य ये है कि जब प्रभु की दया का द्वार खुलता है। तो असंभव भी संभव हो जाता है। कैसे खुलता है उस प्रभु की दया का द्वार? कहां है हम पर ऐसी कृपा करने वाला वह ईश्वर ? हम पर ऐसी कृपा करने वाला वह ईश्वर वास्तव में हमारे अंदर ही विराजमान है। वह हमारी इच्छाशक्ति से ही जाग्रत होता है। उसकी कृपा का द्वार हमारी इच्छाशक्ति की खटखटाहट से खुलता है। सगुण-साकार अथवा निर्गुण-निराकार प्रभु की प्रार्थना करके हम अपनी असीमित सुप्त मानसिक शक्तियों को ही जगाते हैं। यह अपने विश्वास को पुष्ट करने का ही एक मार्ग है। वास्तव में सकारात्मक दृष्टिकोण से उत्पन्न सात्त्विक इच्छाओं का चयन करके हम अपने जीवन में हर खुशी प्राप्त कर सकते हैं। उत्कृष्ट इच्छाशक्ति द्वारा हम असंभव से लगने वाले कार्यों को करने में सक्षम हो जाते हैं। कुछ ऐसी ही उत्कृष्ट इच्छाशक्ति थी विल्मा रुडोल्फ नामक एक पोलियो ग्रस्त बालिका में जो विश्व पटल पर तेज धाविका के रूप में अपना नाम अंकित करवाना चाहती थी। वर्ष 1960 में इटली की राजधानी रोम में होने वाले ओलंपिक खेलों पर सारे विश्व की निगाहें टिकी हुई थीं क्योंकि इन ओलम्पिक खेलों में विल्मा रुडोल्फ भी भाग ले रही थी ।
