
अंततः भाजपा के वरिष्ठ नेता रमेश धवाला संगठन के सामने और संगठन के बराबर आ गए। अब हरिपुर व ढलियारा में भाजपा के सामने धवाला के मंडलों के तीर खड़े हैं। इस तरह पार्टी की करवटों को नकार कर विद्रोह के हाथी सामने आए हैं । धवाला जैसे ताओं को हाशिए से बाहर करके दलदल में कमल उगाने के प्रयासों को मुंह की खानी पड़ी है और अब तो सीधा संदेश आर पार की लड़ाई में जुट गया। जाहिर तौर पर कांग्रेस और भाजपा के संगठनात्मक चुनावों के मध्यांतर इतने लंबे हो गए हैं कि लगता है कि पार्टियों के भीतर कई सर्कस ग्रुप सक्रिय हैं। भाजपा पार्टी के बीच धवाला जैसे नेताओं को ठिकाने लगाने के कारण होंगे, लेकिन ऐसी हस्तियों की ज्वाला का अपना एक इतिहास रहा है। राजनीति को ‘पल में माशा – पल में तोला’ बनाने में माहिर धवाला एकमात्र नेता नहीं हैं, बल्कि भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस में भी अनेक मिल जाएंगे। यह प्रयोग कांग्रेस में भी होते रहे हैं और भाजपा भी अछूती नहीं, लेकिन सत्ता की चुनौतियां बदल रही हैं। पक्ष प्रतिपक्ष की तू-तू, मैं-मैं के बीच राजनीति का चरित्र अगर मापना है तो संगठनों के बीच फासले देखने पड़ेंगे। कांग्रेस की वर्तमान सत्ता इन्हीं फासलों से दो चार होती हुई अपनी जमीन पर इतनी दरारें तो देख ही चुकी है कि राज्यसभा की पूरी एक सीट गंवानी पड़ी। भाजपा भी उपचुनावों की रेत में अपने चिन्ह अगर गंवा बैठी, तो देहरा में धवाला, ज्वालामुखी की ज्वाला की तरह विद्यमान रहा। खैर अब संघर्ष न मोहर और न ही मोहरा, बल्कि सीधे और स्पष्ट हैं। धवाला का मूल्यांकन न पिछली भाजपा की सत्ता में हुआ और न ही ओबीसी प्रधानता की गणना में हुआ। नतीजतन आज यह नेता विध्वंस के चौराहे पर सत्याग्रह कर रहा है। इससे राजनीति की संपूर्णता में संघर्ष की राह जरूर स्पष्ट हो रही है। यह बदलाव नहीं संघर्ष है, जिसकी जरूरत हिमाचल के संदर्भ में जरूरी है। यहां पार्टियां धड़ों में, हस्तियों में तथा आलाकमान की कठपुतलियों में विभक्त हैं। इसी संदर्भ में सत्ता का चरित्र संगठन को घूरने लगा है और नेताओं की गलबहियां पार्टियों के भीतर अस्तित्व की पहचान बनने लगी हैं। यहां चुनाव का मर्ज केवल अपने संगठन का फर्ज नहीं, बल्कि विपक्ष से किया गया अर्ज भी है। नेताओं की मंडी में जातिसूचक इतिहास है, लेकिन सामाजिक व क्षेत्रीय संतुलन अब बिखर रहा है। प्रदेश में ओबीसी, जनजातीय और अनुसूचित जाति वर्ग की ओर सियासत के हाशिए सरक रहे हैं। इसी सियासत ने भाजपा के बीच धवाला, सरवीण और किशन कपूर को सरकाया। दूसरी ओर कांग्रेस बीच भी कई नेता इतने सरका दिए गए कि वे अब भाजपा की ओर से विधायक बन चुके हैं। शांता कुमार के बाद प्रदेश में ब्राह्मण या किसी अन्य जाति या वर्ग से मुख्यमंत्री पद के योग्य न समझना, एक खास तरह की राजनीति को प्रेरित करता है। हम होशियार सिंह और रमेश धवाला के बीच भी जातीय विषमता को पढ़ सकते हैं। आज अगर कांग्रेस से पूछा जाए कि उसके बीच ओबीसी, गद्दी व दलित नेता कौन, तो स्पष्टता के प्रमाण नहीं मिलेंगे। रिक्तता तो भाजपा में भी इसी विषय को लेकर आई है। ऐसे में क्या भाजपा के नए अध्यक्ष के समांतर नेता प्रतिपक्ष के बीच जातीय समीकरण बदलेंगे। दूसरी ओर कांग्रेस के नए अध्यक्ष के स्वरूप में जातीय ठोकरें और क्षेत्रवाद के विचार रुकेंगे।
