चीन से समझौता अहम, लेकिन भरोसे की ज्यादा अपेक्षा

संघर्ष के बाद भारत-चीन दोनों देशों के गलवान रिश्तों में एक बर्फ सी जम गई थी, वह बर्फ अब पिघलती-सी प्रतीत हो रही है। दोनों देश रूस के कजान शहर में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की पूर्व संध्या पर पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी पर गश्त लगाने पर एक समझौते पर पहुंचे हैं। दोनों देशों के बीच लम्बे समय से चले आ रहे तनाव के बादल अब छंट सकते हैं। सीमा विवाद से जुड़े इस फैसले के गहरे कूटनीतिक व सामरिक निहितार्थ हैं। लेकिन इस फैसले का अन्तर्राष्ट्रीय राजनीतिक समीकरणों पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा, इससे दुनिया की महाशक्तियों के निरंकुशता को नियंत्रित किया जा सकेगा, ब्रिक्स समूह को ताकतवर बनाने के प्रयासों में सफलता मिलेगी। यह घटनाक्रम उस विश्वास को भी मजबूती देगा, जिसमें कहा जा रहा है कि मोदी और शी जिनपिंग यूक्रेन -रूस संघर्ष में मध्यस्थ की भूमिका निभा सकते हैं। इन आशा एवं सकारात्मक दृष्टिकोणों के बावजूद एक बड़ा प्रश्न चीन के पलटूराम नजरिये को लेकर निराश भी करता है। भारत को गहरे तक इस बात का अहसास है कि बीजिंग को सीमा समझौतों की अवहेलना करने की पूरानी आदत है। उसने अनेक बार भारत के भरोसे को तोड़ा है। पूर्व के अनुभवों से ऐसी आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है। हालिया फैसले का भी ऐसा ही कोई हश्र न हो जाये, इसके लिये भारत को फूंक- फूंक कर कदम रखने की जरूरत है। भारत-चीन दोस्ती महत्वपूर्ण ही नहीं, बल्कि उपयोगी भी है। यह दोनों देशों के हित होने के साथ दुनिया में शांति, स्थिरता, सौहार्द एवं आर्थिक विकास की भी जरूरत है । इसीलिये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दोस्ती की तरफ कदम बढ़ाते हुए हाथ मिलाये हैं और सौहार्दपूर्ण बातचीत के लिये टेबल पर बैठे हैं। गलवान संघर्ष के चार साल बाद आखिरकार दोनों देश निकट आये है, परस्पर वार्ता का गतिरोध दूर हुआ है, दुनिया को कुछ सकारात्मक एवं आशाभरा दिखाने की संभावनाएं बढ़ी है। इस गतिरोध के चलते दोनों देशों के बीच लगातार तनाव एव संघर्ष का माहौल बना रहा है, व्यापारिक गतिविधियां रूक-सी गयी थी, एक बेहद जटिल भौगोलिक परिस्थितियों में दोनों देशों की सेनाओं को चौबीस घंटे तैयार रहने की स्थिति में खड़ा कर दिया था। लेकिन अब ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में दोनों देशों के निकट आने के घटनाक्रम से एक बड़ा संदेश भी दुनिया में जाएगा कि दोनों देश बातचीत के जरिये अपने मतभेदों को सुलझा सकते हैं । द्विपक्षीय वार्ता के बाद दोनों देशों के संबंध सामान्य होने की संभावना बढ़ अवश्य गई है, लेकिन इसमें समय लगेगा, क्योंकि बीते चार वर्षों में चीन ने अपनी हरकतों से भारत का भरोसा खोने का काम किया है। भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति के बीच करीब पांच वर्षों के बाद विस्तार से वार्ता इसीलिए हो सकी, क्योंकि चीन देपसांग एवं डेमचोक से अपनी सेनाएं पीछे हटाने और सीमा पर निगरानी की पहली वाली स्थिति बहाल करने पर सहमत हुआ । यह एक अच्छा एवं शुभ संकेत है। प्रधानमंत्री मोदी ने सीमा पर शांति की अपेक्षा करते हुए चीन से कहा है कि आप विश्वास एवं सहयोग को बढ़ावा देने के साथ एक-दूसरे की संवेदनशीलता का सम्मान किया जाना चाहिए। यह कहना आवश्यक एवं प्रासंगिक था, क्योंकि चीन यह तो चाहता है कि भारत उसके हितों को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरते, लेकिन खुद उसकी ओर से भारत के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता को लगातार नजरअंदाज करता रहा था। इसका प्रमाण यह है कि वह कभी कश्मीर तो कभी अरुणाचल प्रदेश को लेकर मनगढ़ंत दावे करता रहा है। इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकते कि चीन किस तरह पाकिस्तान को भारत के खिलाफ मोहरे की तरह इस्तेमाल करता रहा है। चीन पाकिस्तान के उन आतंकियों का संयुक्त राष्ट्र में बचाव करता रहा है, जो भारत के लिए खतरा हैं। चीन किये गये वायदों एवं समझौतों से पीछे हटता रहा है, चीनी राष्ट्रपति ने दोनों देशों के बीच 1993, 1996, 2005 और 2013 में परस्पर भरोसा पैदा करने वाले समझौतों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने अपनी सेना को भारतीय दावे वाले इलाकों में अतिक्रमण करने का आदेश दिया। इसी का अंजाम रही जून 2020 में गलवान घाटी जैसी घटना । इसके बावजूद भारत के राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व ने बहुत संयम बरता, भड़काने वाली परिस्थितियों में भी उन्होंने धैर्य से काम लिया और बातचीत के जरिये ही मामले का हल निकाला। लेकिन, चिंता कम नहीं हुई है। पिछले साढ़े चार बरसों के दौरान चीनी सेना ने बेहद दुर्गम पर्वतीय इलाकों में पक्के निर्माण कर लिए हैं। आशंका है कि चीन अपने इन सैन्य ढांचागत निर्माण को ध्वस्त कर इलाका पूरी तरह छोड़ देने के लिए तैयार होगा भी या नहीं ? ऐसी स्थिति में पूर्वी लद्दाख के सीमांत इलाकों में सैन्य तनाव और परस्पर अविश्वास की स्थिति बनी रहेगी। भारतीय सामरिक पर्यवेक्षकों के बीच चीन के इरादों को लेकर शक बना रहेगा, क्योंकि हमारे इस पड़ोसी का भरोसा तोड़ने का पुराना इतिहास रहा है। लेकिन देर आये दुरस्त आये की कहावत के अनुसार चीन को भारत से दोस्ती का महत्व समझ आ गया है तो यह दोनों देशों के साथ समूची दुनिया के हित में है । भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति की मुलाकात के बाद दोनों देशों के विशेष प्रतिनिधि भी शीघ्र टेबल पर बैठकर भरोसे एवं विश्वास बहाली के उपायों पर चर्चा करेंगे, लेकिन भारत को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि चीन कहीं दो कदम आगे बढ़कर चार कम पीछे न हट जाये, ऐसा पहले भी हो चुका है। भारत को चीन से संबंध सामान्य करने की दिशा में आगे बढ़ने के पहले इसकी पड़ताल करनी चाहिए कि कहीं वह फिर से वैसी हरकत तो नहीं करेगा, जैसी डोकलाम, गलवन, देपसांग आदि में की है। यह ध्यान रहे कि अतीत में चीन ने अपने अति महत्वाकांक्षी एवं अतिक्रमणकारी रवैये को तभी छोड़ा है, जब भारत ने यह जताने में संकोच नहीं किया कि वह बहुपक्षीय सहयोग के ब्रिक्स और एससीओ जैसे संगठनों को अपेक्षित महत्व देने से इन्कार कर सकता है। अब चीन को झुकना उसकी विवशता बन गयी है, क्योंकि उसे यह आभास हुआ कि भारत का असहयोग उसके आर्थिक हितों पर प्रतिकूल असर डाल सकता है। ऐसा हुआ भी है कि भारत ने चीन को अपने देश में बाजार नहीं बनने दिया, जिसका बड़ा खामियाजा उसे भुगतना पड़ा है। चीन की अर्थ व्यवस्था में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका है।

चीन से समझौता अहम, लेकिन भरोसे की ज्यादा अपेक्षा
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