डॉ. नर्मदेश्वर प्रसाद चौधरी उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री बनने के लिए बीजेपी का साथ छोड़कर कांग्रेस और एनसीपी का दामन थामा था। जनता इस अवसर के • तलाश में थी कि कब उनको मौका मिले ताकि इनको सबक सिखाया जा सके। बाला साहेब ठाकरे ने जिस हिंदुत्व के आधार पर शिवसेना की स्थापना की थी, उद्धव ठाकरे ने सत्ता के लालच में उसकी तिलांजलि दे दी । महाराष्ट्र की जनता ये पूरा प्रकरण देख रही थी । लोकसभा के चुनाव में बीजेपी को जो सीट कम आई थी उसका कारण 400 पार का नारा था जिसने जनता को आश्वस्त कर दिया था कि बीजेपी को 400 सीट आ ही जाएगी। पिछले दिनों महाराष्ट्र और झारखंड के विधानसभा का चुनाव परिणाम सामने आया जिसमें बीजेपी और उनके सहयोगियों को प्रचंड बहुमत प्राप्त हुआ। ये तो तय था कि एनडीए को बहुमत प्राप्त होगा लेकिन इस प्रकार की सूनामी की संभावना कतई नहीं थी । दरअसल इसकी पटकथा तब ही लिख दी गई थी जब उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री बनने के लिए बीजेपी का साथ छोड़कर कांग्रेस और एनसीपी का दामन थामा था। जनता इस अवसर के तलाश में थी कि कब उनको मौका मिले ताकि इनको सबक सिखाया जा सके। बाला साहेब ठाकरे ने जिस हिंदुत्व के आधार पर शिवसेना की स्थापना की थी, उद्धव ठाकरे ने सत्ता के लालच में उसकी तिलांजलि दे दी । महाराष्ट्र की जनता ये पूरा प्रकरण देख रही थी। लोकसभा के चुनाव में बीजेपी को जो सीट कम आई थी उसका कारण 400 पार का नारा था जिसने जनता को आश्वस्त कर दिया था कि बीजेपी को 400 सीट आ ही जाएगी। इसलिए बीजेपी के कोर वोटर अपने घरों से नहीं निकले और मुगालते में रह गए। लोकसभा के चुनाव परिणाम से विपक्षी दल जनता जनार्दन की मनोकामना का आकलन नहीं कर सके और उनकी करारी शिकस्त हो गई। अजित पवार को अपने चाचा से दुगनी सीट मिली. उसका कारण साफ था कि जनता ये देख रही थी कि अजित पवार ही शरद पवार के बाद उनके उत्तराधिकारी बन सकते थे लेकिन पुत्री मोह में शरद पवार ने अजित पवार के बजाय सुप्रिया सुले को महत्त्व दिया । जनता इस बात को नहीं भूल पाई। वैसे अजित पवार को भी लोकसभा के चुनाव में अपनी पत्नी को सुप्रिया सुले के खिलाफ उतारना महंगा पड़ा था। दरअसल परिवार में खींचतान से जनता में गलत संदेश जाता है। एकनाथ शिंदे ने जो राह पकड़ी, उसको जनता का पूरा आशीर्वाद प्राप्त हुआ । बाला साहेब ठाकरे कभी भी कांग्रेस के साथ हाथ नहीं मिला सकते थे । उद्धव ठाकरे ने ऐसा करके महाराष्ट्र में अपनी साख खो दिया है। अब वह जमीन उनकी पार्टी को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती । महाराष्ट्र के चुनाव में बहुत से मुद्दे थे जिनमें किसानों द्वारा आत्महत्या का मामला, सोयाबीन और कपास का उचित मूल्य नहीं मिलना आदि लेकिन चुनाव में जनता ने इन मुद्दों को नजरअंदाज करके केवल हिंदुत्व के नाम पर वोट दिया। योगी आदित्यनाथ का ये नारा कि बटोगे तो कटोगे और प्रधानमंत्री का ये नारा एक हैं तो सेफ हैं, बहुत कारगर साबित हुआ। दरअसल इस चुनाव में ओबीसी वोटरों ने एकमुश्त एनडीए को वोट दिया। इसके अलावा हिन्दू वोटरों के ध्रुवीकरण का कारण ये था कि एक समुदाय के संगठनों ने अपनी वे मांगे रख दी जो हिंदुओं को बेहद आपत्तिजनक लगी । महाराष्ट्र में कोई आरएसएस पे बैन लगाने को कहे तो इसका विरोध वहां का हर हिन्दू करेगा। कांग्रेस, एनसीपी, शरद पवार, और उद्धव ठाकरे के मंचो पर ये मांग करने वाले एक समुदाय की उपस्थिति ने हिन्दू वोटरों के ध्रुवीकरण करने का काम किया। एक समुदाय के प्रति एक नफ़रत का भाव जागरूक हो गया। मराठा हमेशा से एक समुदाय से लड़ते रहे और ये भाव उनके अंदर आज भी है। ओबैसी जैसे नेताओं ने आग में घी डालने का काम किया। हिन्दू अपने जात पात से उठकर केवल हिन्दू होने के नाम पर वोट दिया और अब ऐसा ही होगा । एक समुदाय अपने आप को संगठित करके अपना वोट केवल विपक्षी दलों को देंगे तो यकीन मानिए आने वाले समय में हिंदुओं के वोट का ध्रुवीकरण होगा और तब कांग्रेस जैसे दलों का सूपड़ा साफ होने में देर नहीं लगेगी. एक समुदाय का एक एकजुट होना हिंदुओं के अंदर भी जागृति पैदा करेगा । हिन्दू अपने जातीय भेदभाव भुलाकर हिन्दू के नाम पर वोट देगा। अगर अस्सी प्रतिशत हिन्दू एकजुट हो जाएं तो एक भी अन्य समुदाय के जनप्रतिनिधियों का चुना जाना असम्भव हो जाएगा। आने वाले समय में ये आसार नजर आता है। उत्तरप्रदेश के उपचुनाव का जो परिणाम आया है वह इसी ओर इशारा कर रहे हैं। योगी आदित्यनाथ का हिन्दू वाला कार्ड बखूबी चल गया है। अब देश में जो दल एक समुदाय की बात करता नजर आएगा, उसका सूपड़ा साफ होना निश्चित है। अब केवल दक्षिण के राज्यों में हिंदुओं में जागरूकता लाने की आवश्यकता है। वहाँ संघ भी अभी तक अपने पैर नही जमा पाया है। अगर संघ किसी तरह वहाँ घुसपैठ कर लेता है तो धीरे धीरे वहाँ भी एनडीए अपना पाँव पसार सकता है। महाराष्ट्र में हिन्दू कार्ड बखूबी चल गया है और ये अभी चलेगा। जबतक एक आदमी के हाथ में कांग्रेस की कमान है, तब तक बीजेपी को चिंता करने की कोई आवश्यकता नही है । झारखंड में चुनाव परिणाम आशा के अनुरूप रहा क्योंकि बीजेपी वहाँ कोई भी करिश्माई आदिवासी नेता सामने नहीं ला सकी है। विगत में गैर आदिवासी रघुवर दास को मुख्यमंत्री बनाना बीजेपी की बहुत बड़ी भूल थी इससे वहां के आदिवासियों में बीजेपी के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया। अब वहाँ का आदिवासी समुदाय बीजेपी को वोट नही दे पा रहा है । केवल शहरी इलाकों में बीजेपी का प्रभाव है। बाबूलाल मरांडी जैसे आदिवासी नेता भी बीजेपी का कुछ भला नही कर पाएंगे। इसके लिए बीजेपी को कोई तेजतर्रार युवा आदिवासी नेता की आवश्यकता है। जबतक सरकार के प्रति गहरा असंतोष नहीं होगा, तबतक सत्ता परिवर्तन आसान नहीं होगा। इसबार बीजेपी कुछ कर सकती थी लेकिन बीजेपी ने किसी चेहरे पर यहाँ चुनाव नहीं लड़ा जिसका खामियाजा उसे उठाना पड़ा। जबतक किसी चेहरे पर आप चुनाव में नहीं उतरेंगे तो बंगाल और झारखंड में सत्ता परिवर्तन संभव नहीं है। आज दिल्ली में वही स्थिति है । दिल्ली के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के पास कोई चेहरा उपलब्ध नहीं है जो केजरीवाल का मुकाबला कर सके। ये अतिश्योक्ति नहीं होगी कि इस बार के विधानसभा चुनाव में फिर से केजरीवाल की आम आदमी पार्टी फिर से सत्ता में ना आ जाये | आज विपक्ष के पास मोदी के सामने टिकने वाला कोई चेहरा नहीं है जो बीजेपी को लोकसभा के चुनाव में टक्कर दे सके। दरअसल लोकसभा और विधानसभा का चुनाव अलग अलग होता है। लोकसभा के लिये राष्ट्रीय स्तर का नेता चाहिये होता है और विधानसभा के लिए राज्य स्तर के नेता की जरूरत होती है। और दोनों स्तरों पर मुद्दे भी अलग अलग होते हैं लेकिन अगर धार्मिक आधार पर वोटों का ध्रुवीकरण हो जाता है तो एक समुदाय परस्त पार्टियों का सत्ता में आना मुश्किल हो जाएगा। विधानसभा चुनाव में बेशक बंगाल और दक्षिण के राज्यों में विपक्षी दल सत्ता में आ जायें लेकिन राष्ट्रीय स्तर बीजेपी को हराना बेहद मुश्किल जान पड़ता है।