सर्वोच्च मानवीय मूल्यों वनैतिकता में शुमार अमन, शांति, संयम, सौहार्द, सद्भाव, इत्तिहाद, मोहब्बत, सुकून, शिष्टाचार व अहिंसा जैसे अल्फाज तथा ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’व‘अहिंसा परमो धर्म’ जैसे वाक्यांश सुनने में अच्छे लगते हैं। लेकिन वैश्विक पटल पर राजनीतिक, कूटनीतिक व रणनीतिक समीकरण बदल चुके हैं। रूस-यूक्रेन तथा इजरायल- फिलीस्तीन जैसे देशों के युद्धों में आग उगल रहे हथियारों के कहर से अमन व अहिंसा जैसे लफ्ज अपना वजूद तलाश रहे हैं। हिंदोस्तान की सरजमीं पर ‘महात्मा बुद्ध’ से लेकर ‘महात्मा गांधी’ तक कई महापुरुषों ने अमन की पैरोकारी करके दुनिया को शांति का पैगाम दिया है। पंद्रह अगस्त को मुल्क की यौम-ए-आजादी के मौके पर लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री ने अपनी तकरीर में जिक्र किया था कि भारत ने दुनिया को युद्ध नहीं बुद्ध दिए हैं। गुजिस्ता अगस्त महीने में यूक्रेन के दौरे पर गए हमारे प्रधानमंत्री ने अपनी उसी तहरीर को दोहराया कि भारत ने विश्व को युद्ध नहीं, बुद्ध दिए हैं। हाल ही में 23 मई 2024 को महात्मा बुद्ध की 2586वीं जयंती भी मनाई गई । भारतभूमि पर उद्गम हुए बौद्ध धर्मको भारत के अलावा चीन, कोरिया, वियतनाम, मंगोलिया, जापान व ताइवान सहित कई देशों में करोड़ों लोग अपनाते हैं। भूटान, श्रीलंका, कंबोडिया व म्यांमार में बौद्ध धर्म को आधिकारिक दर्जा हासिल है। लाओस तथा थाईलैंड घोषित बौद्ध राष्ट्र हैं। सदियों पूर्व भारत के कई राजाओं ने बुद्ध की विरासत को सहेजने में अहम योगदान दिया था। कलिंग युद्ध में भयंकर रक्तपात से आहत होकर सम्राट’अशोक’ भी बुद्ध की शरण में चले गए थे तथा अपने शिलालेखों व बौद्ध संस्थाओं के माध्यम से बुद्ध के शांति संदेशों को कई देशों में पहुंचाकर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया था। भारतीय बौद्ध विद्वान ‘कुमारजीव ‘ ने चौथी शताब्दी में संस्कृत व बौद्ध साहित्य के कई ग्रंथों को ‘मंदारिन भाषा में अनुवाद करके बुद्ध की ज्ञान विरासत को चीन की धरती पर विस्तार दिया था। भारतीय दर्शन के प्रकांड आचार्य ‘शांतरक्षित’ ने स-734 ईस्वी में तिब्बत में जाकर ‘ओदांतपुरी महाविहार’ की तर्ज पर ‘सान्ये विहार’ नामक बौद्ध विहार का निर्माण करवा कर बौद्ध संस्कृति की बुनियाद मजबूत की थी। बेशक राजकुमार ‘सिद्धार्थ गौतम’ ने राजमहलों को त्याग कर वैराग्य धारण करके ‘महात्मा बुद्ध’ बनकर विश्व को सत्य, शांति व अहिंसा के मार्ग पर चलने का संदेश दिया था, मगर विडंबना है कि बुद्ध का अहिंसा व अमन का पैगाम विदेशी आक्रांताओं व मजहब के रहनुमाओं तथा चीन व पाकिस्तान जैसे देशों को कभी रास नहीं आया। स-845 ईस्वी में चीन के ‘तांग वंश’ ने अपने मुल्क में बौद्ध धर्म की बढ़ती लोकप्रियता से खौफजदा होकर बौद्धविरोधी अभियान छेड़ दिया था। चीन की तर्ज पर सन् 1392 में कोरिया के ‘जोसियान वंश’ ने भी बौद्ध धर्म के विरुद्ध आवाज बुलंद की थी। जापान की सैन्य सामान्ती हुकूमत ‘तोकुगवा शोगुनेट’ (1603-1868) के दौर में बौद्ध धर्म को हाशिए पर धकेलने की पूरी कोशिश हुई थी। ‘सिकंदर शाह मिरी’ ( 1389-1412 ) ने कश्मीर महात्मा बुद्ध की सदियों पुरानी अष्टधातु की मूर्ति को पिघलवा दिया था। सन् 1949 में ‘पीपल रिपब्लिक ऑफ चाइना’ की स्थापना के साथ ही चेयरमैन ‘माओत्से तुंग’ ने तिब्बत पर अपना दावा पेश करके सैन्य कार्रवाई को अंजाम देकर साल 1950 में तिब्बत पर अपनी लाल सल्तनत का परचम लहरा दिया था। चीन की ‘पीपल लिबरेशन आर्मी’ ने हजारों तिब्बती लोगों को हलाक कर दिया था । पीएलए की कत्लोगारत व तशद्दुद के चलते स 1959 में हजारों तिब्बती लोग भारत में शरण लेने को मजबूर हुए। बौद्ध धर्म के अनुयायी लाखों तिब्बती लोग शरणार्थी बनकर जीवनयापन करके अपने मुल्क की स्वायत्तता को संघर्षरत हैं। अफगानिस्तान की में बामियान घाटी में महात्मा बुद्ध की चौथी शताब्दी की विशाल प्रतिमाएं सदियों से चंगेज खान, बाबर, औरंगजेब तथा अफगान हुक्मरान ‘ अब्दुर रहमान खान’ जैसे हमलावरों के निशाने पर रही थीं। सन् 2001 में तालिबान हुकूमत ने बुतपरस्ती की दलील देकर 55 मीटर व 38 मीटर ऊंची ‘साल्सल’ व ‘शामामा’ जैसे मुकद्दस नाम वाली बामियान बुद्धों की प्रतिमाओं को बारूदी विस्फोट से उड़ा दिया था । तालिबान की हुकूमत नाफिज होते ही अफगानिस्तान के हजारों लोग शराणार्थी बनने को मजबूर हुए। बौद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्र बौधगया, सारनाथ व कुशीनगर भारत में ही मौजूद हैं । बौधगया में ज्ञान प्राप्ति के बाद महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश बनारस के नजदीक ‘सारनाथ’ में ही दिया था। जिसे ‘धर्म चक्र प्रवर्तन’ कहा जाता है। मगर महमूद गजनवी व मोहम्मद गौरी जैसे आक्रांताओं ने सारनाथ में शांति के प्रतीक मठों व स्मारकों पर हमले करके बौद्ध संस्कृति को ध्वस्त कर दिया था, जिनमें गढ़वाल के शासक ‘गोविंद चंद’ की रानी ‘कुमार देवी’ द्वारा ग्यारहवीं सदी में निर्मित सारनाथ का महा स्मारक ‘धर्मचक्र जिन विहार’ भी शामिल था। हालांकि सन् 1539 में ‘चौसा’ के युद्ध में शेरशाह सूरी से पराजित होकर हुमायूं ने कुछ समय के लिए सारनाथ में ही शरण ली थी। मौजूदा वक्त में मजहबी कट्टरता व चरमपंथ की जहरीली सोच दुनिया के लिए एक तशवीशनाक मसला बनकर उभर रही है । भौतिक सुख सुविधाओं से संपन्न देश भी शांति को मोहताज हैं। लिहाजा प्रश्न यह है कि क्या विश्व को तीसरी आलमी जंग के मुहाने पर ले जा रहे बड़े देशों के हुक्मरानों के जहन में युद्ध के बजाय बुद्ध की चेतना जागृत होगी ? यदि भारत दुनिया को महात्मा बुद्ध, महावीर व महात्मा गांधी जैसे महापुरुषों के शांति संदेश देकर मानवता के तकाजे निभाता रहेगा तो देश शरणार्थियों की महफूज पनाहगाह बनकर रह जाएगा। अतः राष्ट्र के स्वाभिमान के लिए ‘राजपूताना राइफल’ के आदर्श वाक्य ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ व ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ राष्ट्रवाद के जज्बात जगाने वाले ‘सुभाष चंद्र बोस’ के उस इंकलाबी नारे को भी याद रखना होगा ।