सुनील कुमार महा आज बुजुर्ग ही राजस्थान के मेवा कहलाने वाले ‘फोग’ के विषय में जानते हैं, युवा पीढ़ी इस वनस्पति इसके गुणों से अपरिचित है । यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि जाटों की एक प्रमुख गोत्र का नाम फोगाट है जो संभवत: नागवंशियों की संतान हैं जो फोग को अपना प्रतीक चिन्ह मानते थे। फोगाट जाट हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में पाए जाते हैं । कहना गलत नहीं होगा कि ‘फोग’ मरू क्षेत्र का या यूं कहें कि राजस्थान का मेवा कहलाता है, लेकिन आज झाड़ी या छोटे वृक्षनुमा ‘फोग हमारे यहां ‘ बहुत ही कम रह गये हैं । में प्रसिद्ध तथा वर्तमान में राजस्थान लुप्तप्राय वनस्पति ‘फोग’ के बारे आजकल की युवा पीढ़ी शायद ही ‘फोग’ झाड़ी के बारे में जानती होगी । इस वनस्पति के बारे में राजस्थान में कहा जाता है कि – ‘फोगला को रायतो, काचरी को साग, बाजरी की रोटी, जाग्या म्हारा भाग ।’ मतलब यह है कि फोग वनस्पति का रायता, काचरी की सब्जी और बाजरा की रोटी भाग्यवान मतलब नसीब वाले व्यक्ति को ही मिलती है। आज बुजुर्ग ही राजस्थान के मेवा ‘कहलाने वाले ‘फोग’ के विषय में जानते हैं, युवा पीढ़ी इस वनस्पति व इसके गुणों से अपरिचित है। यहां पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि जाटों की एक प्रमुख गोत्र का नाम फोगाट है जो संभवतः नागवंशियों की संतान हैं जो फोग को अपना प्रतीक चिन्ह मानते थे। फोगाट जाट हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में पाए जाते हैं । कहना ग़लत नहीं होगा कि ‘फोग’ मरू क्षेत्र का या यूं कहें कि राजस्थान का मेवा कहलाता है, लेकिन आज झाड़ी या छोटे वृक्षनुमा ‘फोग हमारे यहां बहुत ही कम रह गये हैं। जानकारी देना चाहूंगा कि फोग थार के रेगिस्तान में भारत और पाकिस्तान में मुख्य रूप से पाया जाता है । फोग थार रेगिस्तान के अतिरिक्त उत्तरी अमेरिका, पश्चिमी एशिया, उत्तरी अफ्रीका एवं दक्षिणी यूरोप आदि स्थानों पर भी पाया जाता है । फोग को स्थानीय लोग इसे ‘फोगड़ा’ कहते हैं और वनस्पति विज्ञान की भाषा में इसे केलिगोनम पॉलीगोनोइडिस के नाम से जाना जाता हैं। आज दूर-दराज के क्षेत्रों में यह पौधा देखने तक को नसीब नहीं होता या कम देखने को मिलता है। वैसे राजस्थान के बाड़मेर के बायतु क्षेत्र में, जैसलमेर, बीकानेर, गंगानगर, सीकर, चूरू, झुंझुनूं, सीकर आदि क्षेत्रों में फोग वनस्पति कहीं कहीं देखने को मिल जाती है। जैसलमेर के नाचना क्षेत्र में इसकी झाड़ियां विशेष रूप से पाई जाती हैं। जानकारी देना चाहूंगा कि 60-70 के दशक में ये अच्छी संख्या में मौजूद थे। यह बहुत ही चिंताजनक है कि आज फोग आईयूसीएन की रेड डेटा बुक के संकटग्रस्त पादप की सूची में शामिल है। ईंधन एवं कोयले के लिए इसकी जड़ों के अत्यधिक दोहन के कारण आज थार रेगिस्तान में फोग की मात्रा लगातार घट चुकी है। फोग की लकड़ी की यह विशेषता होती है कि इसकी लकड़ी आग बहुत जल्दी पकड़ लेती है। यहां तक कि गीली होने की स्थिति में भी यह आग जल्दी पकड़ लेती है, फोग के कम होने का कारण इसका जल्दी आग पकड़ना भी है। इसीलिए फोग पर राजस्थान में कहावत भी बनी है। कहां गया है कि – ‘फोग आलो ई बळै, सासू सूदी ई लड़े।’ मतलब यह है कि जिस प्रकार फोग की लकड़ी गीली होने पर भी आग पकड़ लेती है, उसी प्रकार सास सीधी हो तब भी अधिकारपूर्वक बहू को फटकार लगा ही देती है । सिट्टा यह है कि मौका मिलने पर असली स्वभाव उजागर हो ही जाता है। यह बहुत ही चिंताजनक है कि थार में अब बहुत कम फोग झाड़ियां देखने को मिलतीं हैं। जानकारी देना चाहूंगा कि राजस्थान में स्थानीय भाषा में फोग को फोगाली, फोक तथा तूरनी आदि नामों से जाना जाता है । वास्तव में फोग पोलिगोनेएसी कुल का सदस्य है। यह सफेद व काली रंग की एक झाड़ी होती है, जिसमें अनेक शाखाएं होती है । यह अत्यंत शुष्क एवं ओस दोनों परिस्थितियों में जीवित रह सकने वाला पौधा है। इसमें उच्च पोषण क्षमता वाले अनेक पोषण तत्व पाए जाते हैं जो हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभदायक होते हैं । यदि हम फोग के पोषक तत्वों की बात करें तो फोग में करीबन 18% प्रोटीन, 71.1% कार्बोहाईड्रेट, 9.1% रेशे, अल्प मात्रा में वसा,. 7 मिलीग्राम / 100 ग्राम विटामिन बी-2670 मिलीग्राम / 100 ग्राम कैल्शियम, 420 मिलीग्राम / 100 ग्राम फॉस्फोरस तथा 12.7 मिलीग्राम / 100 ग्राम आयरन पाया जाता है। इसकी जड़ों, फूलों, कलियों तथा बीजों में फ़्लवोनोइडस, एल्केलोईडस, टेनिन, स्टेरॉयड, फिनॉल्स, टेर्पेनोईडस आदि पाए जाते हैं तथा कलियों में एथिल होमोवनिलेट (11.79% ) नामक वसीयतेल तथा जड़ों में ड्रीमेनोल (29.42% ) नामक वसीय तेल पाया जाता है। जानकारी देना चाहूंगा कि फोग के फलों और इसके फूलों में 18% प्रोटीन एवं 71% से अधिक कार्बोहाइड्रेट की मात्रा पाई जाती है, जो ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है । फोग का पौधा अत्यंत सूखे और पाले दोनों ही परिस्थितियों में जीवित रह सकता है, और इसकी यही खासियत ही इससे थार के अनुकूल भी बनाती है। इसकी (फोग) तासीर ठंडी होती है और यदि किसी व्यक्ति को ‘लू’ लग जाए तो इसकी पत्तियों का रस निकालकर लू लगने व्यक्ति को पिलाने से वह तत्काल ठीक हो जाता है । इसकी पत्तियों का रस विष प्रतिरोधक माना जाता है। इसकी फलियों से निकलने वाले बीज की रोटी भी बनाई जा सकती है। इतना ही नहीं, फोग की पत्तियां मिट्टी की उर्वरता को भी बढ़ाती हैं। रेगिस्तान की विषम परिस्थितियों में उगकर यह उस क्षेत्र के पर्यावरणीय संतुलन में अहम भूमिका निभाता है। वैसे इसके पत्तियां नहीं होती हैं और टहनी ही इसकी पत्तियां कहलाती हैं। चैत्र – फाल्गुन के महीने में या यूं कहें कि होली के आसपास इसके झाड़ीनुमा पेड़ पर गांठनुमा छोटे-छोटे फल आते हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘फोगला’ कहा जाता है, जिन्हें छाछ या दही में इस्तेमाल किया जाता है। वैसे, मास फरवरी – मार्च-अप्रैल में इसकी नयी पत्तियां फूटती हैं। इसके पुष्प गुलाबी रंग के होते हैं जो छोटे छोटे होते हैं तथा जिनको स्थानीय भाषा में ‘रिमझर’ बोलते हैं। इसके फूलों की महक लुभावनी होती है। कुछ लोग इसके फूलों को तैल में भूनकर भी खाते हैं । फोग की जड़ों को उबालकर कत्थे में मिलाकर इसे मसूड़ों से संबंधित बीमारी में इस्तेमाल किया जाता है। पश्चिमी राजस्थान में अधिकतर लुहार फोग की लकड़ी के कोयले का इस्तेमाल खाना बनाने में करते हैं । फोग का पौधा धीरे धीरे बढ़ता है और जमीन से एक से डेढ़ मीटर ऊंचा होता है। तने की लकड़ी मजबूत और रेशेदार होती है तथा फोग उन दुर्लभ वनस्पतियों में से एक है जो तेज गर्मी में भी बिना पानी के जिंदा रहती है। यह मिट्टी के अपरदन को रोकता है और मरूस्थलीय प्रसार को रोकने में मददगार है। ऊंट और बकरियां इसे बड़े चाव से खाते हैं और अन्य पशु भी इसे चारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं। इसकी लकड़ी आसानी से सड़ती – गलती नहीं है और प्राचीन समय में राजस्थान के जहाज में कहलाने वाले ऊंट की नकेल इसी की लकड़ी से बनाई जाती थीं। आज बढ़ते शहरीकरण, अकाल के कारण फोग वनस्पति लुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में पहुंच गई है।