
देश के सभी राज्यों में छात्रों की परीक्षा का दौर शुरू है। यह हमारी परीक्षा प्रणाली का दोष है कि परीक्षाओं को लेकर न केवल छात्र, बल्कि अभिभावक और अध्यापक भी तनाव में आ जाते हैं। इस मुद्दे की बारीकी में विवेचना की जरूरत है। परीक्षाओं की शुरुआत 19वीं सदी में एक फ्रांसीसी दार्शनिक ने की थी, जिनका नाम सर हेनरी फिशेल था। वह इंडियाना यूनिवर्सिटी ऑफ अमेरिका के प्रोफेसर थे । वह अमेरिका के एक व्यापारी थे । उनका दर्शन दो प्रकार की घटनाओं (बाहरी और आंतरिक ) की जांच पर आधारित था। उनका मूल विचार यह है कि किसी व्यक्ति को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले चीजों (घटनाओं, व्यक्तियों आदि) की बहुत सावधानी से जांच करनी चाहिए। इसलिए, वह जांच के दर्शन को अपनाने वाले पहले दार्शनिकों में से एक हैं। लेकिन यह कहना कि उन्होंने परीक्षा प्रणाली का आविष्कार किया या यहां तक कि चीजों की जांच करने का विचार उनके दिमाग में आया, इससे बहुत अलग है। उन्होंने छात्रों के दिमाग का आकलन करने के लिए परीक्षाएं शुरू करने के अपने विचार को भी अभिव्यक्त किया। उन्होंने किसी की जानकारी, शिक्षा, प्रतिभा, उत्कृष्टता आदि की जांच करना जरूरी समझा। क्योंकि जब कोई बच्चा कॉलेज में पहली बार स्कूल में होता था, तो वह बिना परीक्षा दिए ही एक क्लास से दूसरी क्लास में चला जाता था। लेकिन उसने एक साल में कितना अध्ययन किया, यह पता नहीं लगा सका कि उसने अपने पाठ्यक्रम के बारे में कितनी जानकारी हासिल की है। हेनरी फिशेल ने जो सबसे पहली परीक्षा शुरू की, वह छात्रों के सामान्य ज्ञान के बारे में जानने के लिए थी। हमारे देश में परीक्षा की खोज सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने की थी। उन्होंने 1948 में एक रिपोर्ट के माध्यम से शिक्षा के क्षेत्र में सुधार के लिए परीक्षा प्रणाली की आवश्यकता पर जोर दिया था, जिससे उन्होंने एक समिति की स्थापना की। इसके बाद, इसे ‘राधाकृष्णन समिति’ कहा गया और इसका सुझाव भारत सरकार ने मान लिया, जिससे भारत में प्रथम परीक्षा प्रणाली की शुरुआत हुई । भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली को परतंत्र काल की शिक्षा प्रणाली माना जाता है । यह ब्रिटिश शासन की देन मानी जाती है। इस प्रणाली को लॉर्ड मैकाले ने जन्म दिया था । इस प्रणाली की वजह से आज भी सफेद कॉलरों वाले लिपिक और बाबू ही पैदा हो रहे हैं। इसी शिक्षा प्रणाली की वजह से विद्यार्थियों का शारीरिक और आत्मिक विकास नहीं हो पाता है। हमारा भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हुआ था । हमारे कर्णधारों का ध्यान नई शिक्षा प्रणाली की तरफ गया क्योंकि ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली हमारी शिक्षा प्रणाली के अनुकूल नहीं थी । आजादी के बाद शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने के लिए अनेक समितियां बनाई गईं। देश में एक विशाल योजना बनाई गई जो तीन साल के भीतर 50 फीसदी शिक्षा का प्रसार कर सके। सैकेंडरी शिक्षा का निर्माण किया गया। बाद में बेसिक शिक्षा समिति बनाई गई जिसका उद्देश्य भारत में बेसिक शिक्षा का प्रसार करना था । अखिल भारतीय शिक्षा समिति की सिफारिश की वजह से बच्चों में बेसिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया गया था। शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन लाने के लिए कोठारी आयोग की स्थापना की गई। इस आयोग ने राष्ट्रीय स्तर पर नई योजना लागू करने की सिफारिश की। इस योजना की
चर्चा-परिचर्चा लंबे समय तक चली थी। देश के बहुत से राज्यों में इस प्रणाली को लागू किया गया था। इस प्रणाली से दस साल तक दसवीं कक्षा में सामान्य शिक्षा होगी। इसमें सभी विद्यार्थी एक जैसे विषयों का अध्ययन करेंगे। इस पाठ्यक्रम में दो भाषाएं, गणित, विज्ञान और सामाजिक पांच विषयों पर अध्ययन किया जाएगा। लेकिन विद्यार्थियों को शारीरिक शिक्षा से भी परिचित होना चाहिए। सातवीं की परीक्षा के बाद विद्यार्थी अलग-अलग विषयों पर अध्ययन करेंगे। अगर वो चाहें तो विज्ञान ले सकते हैं, कॉमर्स ले सकते हैं, और औद्योगिक कार्यों के लिए क्राफ्ट भी ले सकते हैं। लेकिन इस कवायद के वांछित परिणाम नहीं निकले। नई शिक्षा नीति 2020 में शिक्षा प्रणाली को रोजगारको सामने रखकर बनाया गया है। हम लोग अक्सर देखते हैं कि लोग विश्वविद्यालय और महाविद्यालयों में भाग तो लेते हैं, लेकिन पढने में उनकी रुचि नहीं होती है। ऐसे लोग समाज में अनुशासनहीनता और अराजकता पैदा करते हैं। नई शिक्षा नीति से हमें यह लाभ होगा कि ऐसे विद्यार्थी दसवीं तक ही रह जाएंगे और वे महाविद्यालय में प्रवेश नहीं ले पाएंगे। जो विद्यार्थी योग्य होंगे, वे कॉलेजों में प्रवेश ले सकेंगे। दसवीं करने के बाद विद्यार्थी डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेकर रोजगार प्राप्त कर सकेंगे । लेकिन अगर हमें नवीन शिक्षा प्रणाली को सफल बनाना है तो स्थान-स्थान पर डिप्लोमा पाठ्यक्रम खोलने पड़ेंगे जिससे दसवीं करने के बाद विद्यार्थी कॉलेजों की तरफ नहीं भागें । इससे शिक्षित लोगों की बेरोजगारी में कमी आएगी और शिक्षित लोगों का समाज में मान-सम्मान होगा। इस शिक्षा प्रणाली से विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास होगा और यह भविष्य के निर्माण के लिए भी सहायक होगी। इस प्रणाली को पूरी तरह से सफल बनाने का भार हमारे शिक्षकों पर है। हाल ही में हिमाचल प्रदेश में कम संख्या वाले शिक्षा संस्थानों को सीमित करने का फैसला बेहतर साबित होगा क्योंकि इससे फोकस बेहतर होगा। इसी कड़ी में भारत में पेपर लीक की समस्या महंगी और दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली का ही परिणाम है और इससे लोग महंगी पढ़ाई पर खर्च करने के बजाय प्रश्नपत्र खरीदने में लाभ देखते हैं। सरकारी कॉलेज बहुत कम शुल्क लेते हैं जिससे शिक्षा सुलभ हो जाती है। लेकिन वहीं निजी संस्थानों की फीस बहुत ज्यादा होती है, इसलिए छात्र चाहते हैं कि उन्हें लाखों रुपए की फीस देने के बजाय लीक हुआ पेपर ही मिल जाए। आखिर में यह कहना चाहूंगा कि हमें तय करना होगा कि छात्र सिर्फ परीक्षा के लिए ही नहीं, बल्कि अपने जीवन के लिए भी तैयार हों। मश्विरा है कि हर छात्र को मजबूत भविष्य बनाने के लिए कोई स्किल सीखना चाहिए, फिर चाहे वह किसी भी
र्स से जुड़ा हो। याद रहे कि व्यावहारिक शिक्षा, व्यवस्थित सुधार एवं कौशल विकास के द्वारा ही युवाओं को वास्तविक दुनिया की चुनौतियों के लिए तैयार किया जा सकता है। महात्मा गांधी जी ने शिक्षा के विषय में कहा था कि शिक्षा का अर्थ बच्चों में सारी शारीरिक, मानसिक और नैतिक शक्तियों का विकास करना होता है । शिक्षा, एकेडमी के दायरे से बढक़र होनी चाहिए, छात्रों को रोजगार क्षमता पर ध्यान देना चाहिए। हमें हर साल नए कौशल सीखने चाहिएं, फिर चाहे वह ड्राइविंग हो या कोई और चीज । सही कौशल पाने से आपकी रोजगार क्षमता बढ़ती है।
