धर्म के प्रति निरपेक्षता से बढ़ते अधर्म को आखिर रोकेगा कौन?

धर्म और अधर्म के बीच मौजूद सूक्ष्म विभाजन को स्पष्ट करते हुए लोक रचयिता गोस्वामी तुलसीदास महाकाव्य रामचरित मानस में लिखते हैं कि ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई ।’ यानी कि दूसरों का हित सोचना – करना ही धर्म है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाना ही अधर्म है। जहां तक भारत और उसकी धर्मनिरपेक्षता का सवाल है तो खुद आरएसएस और उसका राजनीतिक संगठन भाजपा (जनसंघ का परिवर्तित स्वरूप ) इस पर सवाल उठाते हुए तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस और समाजवादी दलों की सरकारों पर तुष्टिकरण के आरोप मढ़ती आई है। इससे स्पष्ट है कि धर्म के प्रति बढ़ती निरपेक्षता से बढ़ते अधर्म को आखिर कौन रोकेगा, यह यक्ष प्रश्न है और इस नीतिगत सवाल पर आरएसएस को ढुलमुल नहीं, बल्कि स्पष्ट रवैया अपनाना चाहिए। चूंकि वह विश्व का सबसे बड़ा सामाजिक संगठन है, दुनिया के सबसे पुराने धर्म सनातन धर्म के आधार पर जीवन पद्धति को विकसित करने और प्राणी मात्र की रक्षा करने का वह पक्षधर रहा है, इसलिए उसके रवैए से देश सहित विश्व का जनमत प्रभावित होता है। क्योंकि वह अमूमन तार्किक और लोकहितैषी बातें करता आया है। उसकी शाखाओं की दिनचर्या समाज के लिए भी सेहतमंद साबित होती आई हैं। भाजपा को इस मुकाम तक पहुंचाने में उसकी मेंटर की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। अब जरा सोचिए, भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, लेकिन यदि वह प्राणी बद्ध/ मानव बद्ध पर उदासीन रहता है, कुतर्क करता है तो इसका दोषी सरकार नहीं है तो कौन है? क्योंकि जनता को भी तो जागरूक करना उसी का कार्य है । गाहे बगाहे होने वाले सांप्रदायिक, जातीय, क्षेत्रीय या आपराधिक हिंसा- प्रतिहिंसा की बातों को कुछ देर के लिए विराम भी दे दिया जाए, क्योंकि मानवीय सनक को काबू में रखना किसी भी प्रशासन के लिए जटिल कार्य है। फिर भी इस पर सियासी कारणों से रोक नहीं लगाना भी अधर्म है। वहीं, ऐसी ही हिंसक प्रवृत्ति से जुड़ा एक पूरक सवाल है कि यदि भारत सरकार पशु-पक्षी बद्ध के लिए लाइसेंस जारी करती है या फिर इस तरह की मिलीजुली मानवीय प्रवृत्ति पर खामोश रहती है तो मेरे विचार में वह एक अधार्मिक प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही है और इससे उसका प्रशासन भी प्रभावित होगा। मेरा मानना है कि यदि देशवासियों को सही दूसरों का हित सोचना करना ही धर्म है और दूसरों को पीड़ा पहुंचाना ही अधर्म है। जहां तक भारत और उसकी धर्मनिरपेक्षता का सवाल है तो खुद आरएसएस और उसका राजनीतिक संगठन भाजपा (जनसंघ का परिवर्तित स्वरूप) इस पर सवाल उठाते हुए तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस और समाजवादी दलों की सरकारों पर तुष्टिकरण के आरोप मढ़ती आई है । इससे स्पष्ट है कि धर्म के प्रति बढ़ती निरपेक्षता से बढ़ते अधर्म को आखिर कौन रोकेगा, यह यक्ष प्रश्न है और इस नीतिगत सवाल पर आरएसएस को ढुलमुल नहीं, बल्कि स्पष्ट रवैया अपनाना चाहिए श्री राम धर्मनिरपेक्ष होने मतलब अन्याय का समर्थन करने की वकालत कर रहे हैं। सच कहूं तो इससे एक बार फिर से धर्म की सही समझ ज्ञानी जनों के न्याय के कठघरे में खड़ी है। खासकर तब, जब हिन्दू हृदय सम्राट समझे गए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत, गत रविवार को अमरावती में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान कहते हैं कि दुनिया में धर्म के नाम पर जितने भी अन्याय, अत्याचार होते हैं, उनके पीछे धर्म की गलत समझ काम कर रही होती है। याद दिला दें कि इससे पहले बीते सप्ताह ही आरएसएस प्रमुख ने यह भी कहा था कि जगह-जगह मंदिर विवाद खड़े करना ठीक नहीं है। लिहाजा संघ प्रमुख के बयानों के पीछे छिपी चिंता को समझे जाने की जरूरत है। क्योंकि ऐसा करना हालिया घटनाओं की रोशनी में खासा अहम हो जाता है। उन्होंने धार्मिक जटिलता पर ठीक ही कहा कि धर्म बड़ा जटिल विषय है और इसे समझने में अक्सर गलती होने की आशंका बनी रहती है। आखिर कब धर्म की उदार वृत्ति पर संप्रदाय विशेष की संकीर्ण दृष्टि काबिज हो जाती है और कब धार्मिक समावेशिता को सांप्रदायिक कट्टरता ढक लेती है, यह कई बार हमलोगों की समझ में नहीं आता है। आसेतु हिमालय यानी भारतीय उपमहाद्वीप के संदर्भ में देखा जाए तो बांग्लादेश में हाल के सत्ता परिवर्तन ने कैसे समाज को कट्टरपंथी तत्वों के चंगुल में ला दिया, यह सबके लिए एक ताजा सबक हो सकता है। इससे पहले पाकिस्तान के कट्टरपंथी सोच से हमलोग अवगत और भुक्तभोगी दोनों हैं। कभी उसी का भूभाग रहे बंगलादेश की बदलती घटनाओं और पनपती सोच की हम उपेक्षा नहीं कर सकते। क्योंकि कमोबेश वैसी ही ताकतें हमारे यहां भी सक्रिय हैं । यह खतरा वास्तविक इसलिए भी प्रतीत होता है, क्योंकि ऐसे उदाहरण दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी देखने को मिलते हैं। खासकर एक धर्म विशेष के नाम पर पिछले कुछ दशकों में दुनिया भर में आतंकवाद का जैसा खौफनाक अभियान चला, उसे उस धर्म की सही समझ का उदाहरण कतई नहीं माना जा सकता है। लेकिन संघ प्रमुख की बातें सिर्फ दूसरे देशों के संदर्भ में नहीं कही गई हैं। बल्कि धर्म की गलत व्याख्या के कारण ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ का अजेंडा पीछे छूटने का खतरा अपने देश में भी कम नहीं है। इसलिए हमें एकता के सूत्र तलाशने होंगे। शिक्षा दी जाएगी, तो पुलिस व सैन्य खर्च में भारी कमी स्वतः आ जाएगी। आज यदि देश की जनता नाना प्रकार की नैतिक- भौतिक त्रासदी से जूझ रही है तो इसके पीछे उसकी धर्मनिरपेक्ष भावना ही है। जिसके चलते देशवासियों को सही शिक्षा की डिलीवरी नहीं हो पा रही है । आश्चर्य होता है कि इसके बावजूद भी हमारे धर्मनिरपेक्ष नेता मदमस्त हैं। वो यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हमारे देश में कौन सा धर्म सही शिक्षा दे रहा है और कौन सा धर्म भड़काऊ शिक्षा दे रहा है। इनकी शिनाख्त करके उसे सही राह पर चलने के लिए भारत का प्रशासन विवश नहीं करेगा, तो कौन करेगा। आप धर्मनिरपेक्ष हैं, बहुत अच्छी बात है। लेकिन आप प्रकृति धर्म, प्राणी धर्म और मानव धर्म से निरपेक्ष नहीं हो सकते, क्योंकि इसका सम्मिलित स्वरूप ही राजधर्म है। मनुष्यों को नियंत्रित रखने के लिए किसी न किसी धर्म की जरूरत होती है, जो उन्हें अधार्मिक होने से रोकता है। हिंसक प्रवृत्ति अधार्मिक है, भोगवाद अधार्मिक है, क्योंकि इससे रोग उतपन्न होता है और बढ़ता है । वहीं, अहिंसा, त्याग और सेवा की भावना धार्मिक है, जिसे बढ़ावा देना चाहिए। यह प्राकृतिक गुण है, मानवीय गुण है और प्राणी मात्र के लिए हितैषी है। इस नजरिए से सनातन धर्म/हिन्दू धर्म इसका वाहक समझा जाता है। चूंकि हमारी सरकार धर्मनिरपेक्ष है, इसलिए वह इन नैसर्गिक गुणों से भी निरपेक्ष होना चाहती है, जो तमाम जन समस्याओं की जननी है। इसलिए सवाल उठता है कि जिन्होंने हमें हिन्दू राष्ट्र और सनातनी सोच के सपने दिखाए, उन्हें भी जब देशवासियों ने कुछ अच्छा कर गुजरने के मौके दिये तो वो भी किंकर्तव्यविमूढ़ गए। क्या सत्ता के दुर्गुणों ने उन्हें भी अपने मायाजाल में फंसा लिया और अब वे दुष्टों के बढ़ते प्रभाव के वशीभूत होकर हो

धर्म के प्रति निरपेक्षता से बढ़ते अधर्म को आखिर रोकेगा कौन?
Skip to content