नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने न्यायधीशों को सख्त हिदायत दी है। शीर्ष कोर्ट ने कहा है कि न्यायाधीशों को अनुशासन का पालन करना चाहिए। साथ ही किसी भी मामले को तब तक नहीं लेना चाहिए जब तक कि यह मुख्य न्यायाधीश द्वारा विशेष रूप से न सौंपा गया हो। शीर्ष कोर्ट की न्यायमूर्ति अभय एस ओक और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की पीठ ने राजस्थान हाई कोर्ट द्वारा पारित एक आदेश को चुनौती देने वाली अपील पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। मामले की सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश द्वारा विशेष रूप से नहीं सौंपे गए मामले को उठाने को शीर्ष कोर्ट ने घोर अनुचितता का कार्य बताया। शीर्ष अदालत ने आश्चर्य जताते हुए कि प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) को एक साथ जोड़ने के लिए एक सिविल रिट याचिका पर कैसे विचार किया जा सकता है। दरअसल, राजस्थान हाई कोर्ट ने मई में अपने एक आदेश में निर्देश दिया था कि आठ प्राथमिकियों के संबंध में तीन व्यक्तियों के खिलाफ कोई दंडात्मक कदम नहीं उठाया जाएगा। इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की गई थी। इस पर सुनवाई करते हुए पीठ ने कहा कि तीन व्यक्तियों ने पहले एफआईआर रद्द करने की मांग करते हुए हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था लेकिन उन्हें कोई अंतरिम राहत नहीं दी गई। इसके बाद, उन्होंने आठ एफआईआर को एक साथ जोड़ने और उन्हें एक में समेकित करने के लिए एक अलग सिविल रिट याचिका दायर की। अपीलकर्ता अंबालाल परिहार जिनकी शिकायत पर तीनों व्यक्तियों के खिलाफ छह एफआईआर दर्ज की गईं, ने शीर्ष अदालत के समक्ष दावा किया कि सिविल रिट याचिका दायर करना एक पैंतरा था ताकि अंतरिम राहत नहीं देने वाले रोस्टर जज से बचा जा सके। पीठ ने 16 अक्तूबर के फैसले में कहा कि यह फोरम हंटिंग का उत्कृष्ट मामला है। यह कानून की प्रक्रिया के घोर दुरुपयोग का भी मामला है। इस तरह के पैंतरों को मंजूरी दी जाती है तो फिर चीफ जस्टिस के रोस्टर का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा । जजों को अनुशासन का पालन करना होगा और किसी भी मामले में तब तक सुनवाई शुरू नहीं करनी चाहिए जब तक कि चीफ जस्टिस उन्हें विशेष रूप से वह मामला नहीं सौंपें । पीठ ने कहा कि न्यायाधीश किसी मामले की सुनवाई कर सकते हैं, बशर्ते कि या तो उस श्रेणी मामले अधिसूचित रोस्टर के अनुसार उन्हें सौंपे गए हों या चीफ जस्टिस खासतौर से कोई विशेष मामला उन्हें सौंपें । पीठ ने यह भी कहा कि हालांकि इस मामले में एक सिविल रिट याचिका दायर की गई थी, लेकिन जज को इसे आपराधिक रिट याचिका में परिवर्तित कर देना चाहिए था, जिसे आपराधिक रिट याचिकाएं लेने वाले रोस्टर जज के समक्ष ही रखा जा सकता था । पीठ ने कहा, हमें यकीन है कि तीनों वादियों के इस आचरण पर संबंधित अदालत आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत एफआईआर को रद्द करने की मांग वाली याचिकाओं पर विचार करेगी। यह एक उपयुक्त मामला है जहां तीनों व्यक्तियों को 50 हजार रुपए जुर्माना चुकाना होगा। यह राशि एक महीने के भीतर राजस्थान राज्य कानूनी सेवा प्राधिकरण को भुगतान करनी होगी।