
हाल ही में उत्तराखंड के चमोली जिले के माणा ग्राम के पास हुई हिमस्खलन की घटना में बीआरओ के मजदूर दब गए थे, जिनमें से कुछ को बचा लिया गया, लेकिन कई की जानें नहीं बच सकीं। दरअसल, हिमस्खलन की घटनाएं पूरी दुनिया में बढ़ रही हैं, जिससे अचानक बाढ़े आ रही हैं और सड़कों पर वाहन सवार सैलानियों की मौतें हो रही हैं। फरवरी, 2021 में उत्तराखंड की नीती घाटी में हिमस्खलन के कारण ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में बाढ़ आई, जिससे व्यापक तबाही हुई। इस घटना के चलते वैश्विक स्तर पर हिमस्खलनों और ग्लेशियरों के संकट को लेकर चर्चा शुरू हुई। ऐसे में सवाल उठता है कि ग्लेशियरों के पिघलने की प्रक्रिया में मानवीय गतिविधियों का भी योगदान है, जिससे इन घटनाओं की आवृत्ति बढ़ रही है। ग्लेशियरों का पिघलना प्राकृतिक प्रक्रिया है, लेकिन मानवीय हस्तक्षेप जैसे जलविद्युत परियोजनाओं, निर्माण कार्यों और पर्यावरणीय असंतुलन ने इसे और बढ़ा दिया । इसलिये, हमें इन संवेदनशील क्षेत्रों में सतर्कता बरतने की आवश्यकता है। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से हिमालयी ग्लेशियरों का पिघलना दुगनी दर से बढ़ गया है। वे हर साल आधे मीटर की मोटाई खो रहे हैं और कुछ क्षेत्रों में पीछे भी खिसक रहे हैं। गढ़वाल हिमालय में पिछले चार दशकों में औसतन 18 मीटर प्रति वर्ष ग्लेशियर पीछे खिसक रहे हैं । ग्लेशियरों के पिघलने की दर तापमान, बारिश, नमी, हवाओं की गति और सूर्य की किरणों के परावर्तन पर निर्भर करती है। पिघलते ग्लेशियरों से उत्पन्न जल से गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु जैसी सदानीरा नदियों का अस्तित्व है, जो वर्षा के बिना भी बहती रहती हैं। यदि ग्लेशियरों का पिघलना जारी रहता है, तो इससे समुद्र स्तर 230 फुट तक बढ़ सकता है, जो वैश्विक जल संकट का कारण बन सकता है। नदियों में पानी की महत्ता को ध्यान में रखते हुए, गंगा और यमुना के स्रोतों, गंगोत्री और यमुनोत्री के ग्लेशियरों को नैनीताल उच्च न्यायालय ने 20 मार्च, 2017 को एक आदेश में न्यायिक जीवित मानव का दर्जा दिया। हालांकि ग्लेशियर स्वयं मौसमी बदलाव और बढ़ते तापमान से काल-कवलित हो रहे हैं, लेकिन इनकी सतह जब सूर्य की किरणों को परावर्तित करती है, तो वे वातावरण संतुलन में भी मदद करती हैं। छोटे ग्लेशियर्स औसतन 70 से 100 मीटर तक मोटे होते हैं, जबकि बड़े ग्लेशियर्स 1.5 किमी तक मोटे हो सकते हैं। गतिक ग्लेशियर्स अपनी यात्रा के दौरान शिलाओं को तोड़ते हुए उन्हें उनके मूल स्थानों से दूर ले जाते हैं, जिससे हिमस्खलन के दौरान हिमखंडों के साथ बड़ी-बड़ी शिलाओं की भी होती है। जब ये हिमखंड और शिलाएं नदियों-नालों में गिरती हैं, तो कभी-कभी बहते पानी की राह रोक अस्थायी बांध बना देती हैं। इन बांधों के टूटने से अचानक बाढ़ों और तबाही का खतरा उत्पन्न हो सकता है। हिमस्खलनों के अतिरिक्त, बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियरों में उत्पन्न होती और फैलती ग्लेशियल झीलें सर्वाधिक चिंता का कारण बन रही हैं। जिनके टूटने पर भारी मात्रा में पानी बहकर ये अचानक बाढ़ों का कारण बनती है, जिसे ग्लेशियल आउटबर्स्ट फ्लड कहा जाता है।
