देश की राजधानी दिल्ली का प्रदूषण इतना खतरनाक स्तर तक पहुंच गया है कि केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी दिल्ली आने से घबराते हैं। गडकरी ने कहा कि स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पडने से वे दिल्ली आने से कतराते हैं । गडकरी मंत्री हैं। उनके पास साधन और सुविधाएं हैं। वे कहीं भी आसानी से आवागमन कर सकते हैं। सवाल दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी परियोजना क्षेत्र (एनसीआर) के करोड़ों लोगों के जीवन का है। इतने लोग अपना कामकाज, घरबार छोड़ कर कहां जाएं। प्रदूषण के धीमे जहर को पीना उनकी मजबूरी बन गई है। ज्यादातर सांसदों, मंत्रियों पर अकूत दौलत है। उनके लिए प्रदूषण से बचने के लिए कहीं भी देश में सरकारी खर्च पर आना-जाना आसान हैं। दिल्ली और एनसीआर के लोगों को सरकारी मशीनरी और नेताओं के नाकारपन का अभिशाप झेलने को मजबूर होना पड़ रहा है । देश की राजधानी होने के बावजूद दिल्ली हर तरह के जानलेवा प्रदूषण की शिकार है। वाहनों और फैक्ट्री के धुएं से होने वाला प्रदूषण, यमुना का प्रदूषण और घरों-प्रतिष्ठानों से निकलने वाले कचरे का प्रदूषण । तीनों तरह के प्रदूषण का बोझ उठाने के लिए दिल्ली अभिशप्त हो चुकी है। दिल्ली में केंद्र भाजपा गठबंधन की और राज्य में की सरकार मौजूद हैं। इससे पहले दिल्ली में लंबी अवधि तक कांग्रेस का शासन रहा है। प्रदूषण से निपटने में सभी राजनीतिक दल नाकाम रहे हैं। दिल्ली में कचरे का पहाड़ आज भी नेताओं के दावों-वादों को मुंह चिढ़ा रहा है। हिंदू-मुस्लिम विवाद और भ्रष्टाचार की तरह प्रदूषण नेताओं के लिए कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया। जब कभी प्रदूषण का मुद्दा उठता भी है तो केंद्र और दिल्ली की सरकार गेंद एक-दूसरे के पाले में डाल कर अपनी जिम्मेदारी से बरी हो जाती हैं। यही वजह है कि दिल्ली और एनसीआर की आबोहवा इतनी बिगड़ चुकी है कि सांस लेना भी भर हो रहा है। विशेषज्ञों के मुताबिक दिल्ली में रहने वाले कम सेकम १० सिगरेट जितना प्रदूषण हर दिन लेने को विवश हैं। सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण जैसी संवैधानिक स्वतंत्र संस्थाए भी तमाम प्रयासों के बावजूद दिल्ली और एनसीआर के प्रदूषण से निपटने में प्रभावी भूमिका अदा नहीं कर सकी। केंद्रीय मंत्री गडकरी ने अपने बयान में स्वीकार किया था कि दिल्ली में ५० प्रतिशत प्रदूषण वाहनों से निकलता है। आप गडकरी देश के परिवहन मंत्री हैं। ऐसे में सवाल यही उठता है कि आखिर प्रदूषण की विकराल समस्या से निपटने की जिम्मेदार किसकी है। जब देश का परिवहन मंत्री ही समस्या के समाधान से मुंह चुराने लगे तो अवाम किससे उम्मीद करे। स्विस संगठन की विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट 2023 में दिल्ली को सबसे खराब वायु गुणवत्ता वाला राजधानी शहर बताया गया है। रिपोर्ट 2023 के अनुसार, 2023 में 134 देशों में से बांग्लादेश और पाकिस्तान के बाद भारत की वायु गुणवत्ता तीसरी सबसे खराब की भविष्यवाणी की गई। राष्ट्रीय राजधानी को वर्ष 2018 से लगातार चार बार विश्व का सबसे प्रदूषित राजधानी शहर बताया गया है। रिपोर्ट में कहा गया कि अनुमान है कि भारत में 1.36 अरब लोग पीएम 2.5 की सांद्रता का अनुभव करते हैं, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा अनुशंसित वार्षिक दिशानिर्देश स्तर 5 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक है। दिल्ली और एनसीआर में प्रदूषण से खराब हालात में सुधार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के प्रयास भी सरकारों के नाकारपन के कारण बौने साबित हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट दर्जनों बार फटकार लगा चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर सुनवाई दौरान कहा कि कोर्ट कमिश्नरों की रिपोर्ट में चौंकाने वाली जानकारी सामने आई है। अदालत ने कहा कि सरकारी एजेंसियों और दिल्ली पुलिस के बीच समन्वय की कमी है। साथ ही अदालत ने कहा कि दिल्ली में फिल्हाल ग्रैप-4 जारी रहेगा। दिल्ली सरकार, एमसीडी, डीपीसीसी, सीएक्यूएम और अन्य अधिकारियों के बीच समन्वय की पूरी तरह से कमी है। समन्वय सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग पर है। इसलिए ग्रैप-4 को लागू करने के लिए समन्वय हो । सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के साथ-साथ पंजाब और हरियाणा की राज्य सरकारों को फटकार लगाई क्योंकि राज्य प्रदूषण विरोधी उपायों को लागू करने में विफल रहे। यह ऐसे समय में हुआ है जब दिल्ली एनसीआर की वायु गुणवत्ता बहुत खराब बनी हुई है, जिससे सांस संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ गया है। मामले की सुनवाई कर रही शीर्ष अदालत की पीठ ने पंजाब और हरियाणा सरकारों द्वारा खेतों में लगी आग को बुझाने के प्रयासों को मात्र दिखावा करार दिया। हवा की गुणवत्ता खराब होने का एक स्पष्ट कारण पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे कृषि प्रधान राज्यों में पराली जलाने की बार-बार होने वाली घटनाएँ हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने 23 अक्टूबर को पर्यावरण कानूनों को शक्तिहीन बनाने के लिए केंद्र की आलोचना की और कहा कि वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग (सीएक्यूएम) अधिनियम के तहत पराली जलाने पर दंड से संबंधित प्रावधानों को लागू नहीं किया गया है। मामले की सुनवाई कर रही पीठ ने कहा कि वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के प्रावधान को लागू करने के लिए कोई आवश्यक तंत्र बनाए बिना ही अधिनियम लागू कर दिया गया । भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के अनुसार भारत में हर साल पैदा होने वाले 22 मिलियन टन चावल के ठूंठ में से लगभग 14 मिलियन टन पराली को आग के हवाले कर दिया जाता है। यह पैदा होने वाले चावल के ठूंठ का लगभग 63.6 प्रतिशत है और हरियाणा और पंजाब में अकेले जलाई जाने वाली पराली का 48 प्रतिशत हिस्सा है। हालत यह है कि वोटों के डर से राज्य और केंद्र की सरकारें पराली जलाने पर पूरी तरह रोक नहीं लगा पा रही हैं। राजनीतिक दलों के लिए किसानों का वोट बैंक आम लोगों के जीवन पर भारी पड़ रहा है। यही वजह है कि पराली जलाने की हर साल होने वाले घटनाओं के बावजूद कोई भी सरकार सख्त कदम उठाने से हिचकिचाती है। यहां तक की सरकारें वोटों के लालच में लगातार अदालत के निर्देशों की अवहेलना कर रही हैं। कुछ दिन पहले हरियाणा सरकार ने कथित तौर पर कैथल जिले में पराली जलाने के आरोप में 18 किसानों को गिरफ्तार किया था। ऐसी गतिविधियों पर लगाम लगाने में विफल रहने के कारण राज्य के कृषि विभाग के करीब 24 अधिकारियों को निलंबित भी किया गया था। गौरतलब है कि हजारों किसान पराली हर साल जलाते हैं।