ईरान-इजरायल के बीच शुरू हुए ऐलान-ए-जंग के अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव को इसी परिप्रेक्ष्य में जानने-समझने की जरूरत है । समझा जाता है कि जिस तरह से अमेरिका, यूक्रेन की पीठ थपथपा रहा है, ठीक उसी तरह से रूस, अब फिलिस्तीन, लेबनान और ईरान को शह दे रहा है । क्योंकि उसकी स्पष्ट सोच है कि यूक्रेन में अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो की मदद तभी थमेगी, जब वह इजरायल के बचाव में मध्यपूर्व के देशों के साथ सीधे तौर पर उलझेगा । दुनिया का थानेदार अमेरिका और उसका प्रबल प्रतिद्वंद्वी रूस (पूर्व सोवियत संघ का काबिल वारिस) के बीच अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो कुछ भी हुआ, हो रहा है अथवा होगा, वह कोई नई बात नहीं है। क्योंकि अमेरिका-इंग्लैंड की युगलबंदी को संतुलित करने के लिए रूस-चीन का गठजोड़ रणनीतिक पूर्वक आगे बढ़ रहा है। इसलिए हाल में ईरान-इजरायल के बीच शुरू हुए ऐलान-ए- जंग के अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव को इसी परिप्रेक्ष्य में जानने-समझने की जरूरत है। समझा जाता है कि जिस तरह से अमेरिका, यूक्रेन की पीठ थपथपा रहा है ठीक उसी तरह से रूस, अब फिलिस्तीन, लेबनान और ईरान को शह दे रहा है। क्योंकि उसकी स्पष्ट सोच है कि यूक्रेन में अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो की मदद तभी थमेगी, जब वह इजरायल के बचाव में मध्यपूर्व के देशों के साथ सीधे तौर पर उलझेगा। यही वजह है कि जब हमास और हिजबुल्लाह जैसे आतंकी संगठन अपने प्रभाव वाले इलाके में इजरायल के सामने कमजोर पड़ने लगे तो हौसलाअफजाई के लिए उनके आका ईरान को इजरायल के खिलाफ सामने आना पड़ा। उधर जब अमेरिका भी इजरायल के साथ खुले मैदान में उतर गया, तो अब ईरान के तरफदारी में रूस की घोषणा की ओर सबकी निगाहें जमीं हुईं हैं। वैसे भी इजरायल पर एकाएक बरसीं 200 ईरानी मिसाइलों के बाद अब इजरायली प्रतिक्रिया कितनी भयानक होगी, इस ओर भी पूरी दुनिया की नजर टिकी हुई है। ऐसा इसलिए कि ईरान के हमले के बाद भी इजरायल का हिजबुल्लाह पर एक्शन थमा नहीं है। उसने लेबनान के बेरूत के दक्षिणी इलाकों में भीषण हवाई हमले किए। मतलब लेबनान में फिर बमबारी की। ये हमले हिजबुल्लाह के अहम ठिकानों पर किए गए। ईरान के हमले के बाद इजरायल ने दो टूक कहा कि हमारा जवाबी ऑपरेशन प्लान तैयार है। हम तय करेंगे कि जवाब कब देना है। जहां भी और जब भी होगा, हम ईरान पर हमला करेंगे। वहीं, ईरान के सेना प्रमुख ने धमकी दी कि अगर उनके देश पर हमला हुआ, तो वो इज़राइल के सारे इंफ्रास्ट्रक्चर को तबाह कर देंगे। इससे तय है कि बात अभी और बढ़ेगी। इसलिए पुनः यह सवाल मौजूं है कि आखिर में प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध की भयावह त्रासदी को झेलने के बावजूद समकालीन दुनिया स्थाई शांति की परिकल्पना करने के बजाय तीसरे विश्वयुद्ध की परिस्थितियों को बढ़ावा देने पर क्यों तुली हुई हैं? क्या उनका यह कदम उस लोकतंत्र के मुंह पर करारा तमाचा नहीं है, जो स्वतंत्रता-समानता- बंधुत्व की बात करते हुए नहीं अघाता है। सही मायने में तो अब संयुक्त राष्ट्र संघ भी दुनियावी विरोधाभाषों को खत्म करने या उन्हें सुलझाने की दृष्टि से पूरी तरह से विफल साबित हो चुका है। विशेषज्ञों के मुताबिक, शीत युद्ध कालीन करतूतों की बात यदि छोड़ भी दी जाए, तो समकालीन वैश्विक करतूतें यही इशारे कर रही हैं कि हथियारों के सौदागरों को जिंदा रखने के लिए दुनियाभर में जारी छद्मयुद्धों की बजाए रूस – यूक्रेन युद्ध, इजराइल – फिलिस्तीन युद्ध जैसे अन्य युद्ध भी बेहद जरूरी हैं। इसलिए हर ओर विरोधाभासों को बढ़ावा दिया जा रहा है। सच कहूं तो ये वही ताकतें हैं जो भारत- पाक युद्ध, भारत-चीन युद्ध, चीन ताइवान युद्ध को लंबा चलने देने की परिस्थिति पैदा करने में जब विफल हुईं तो उन्हें अपने ही पड़ोस में नए-नए मोर्चे खोलने पड़े। क्योंकि दुनिया की फैक्टरियों में जब हथियार बनेंगे तो उनके खपत के लायक नित्य नया क्षेत्र चुनने की पहल तो सत्ताधीशों को करनी ही होगी। बहरहाल, अमेरिकन और रूसी नेतृत्व यही कर रहा है। चीनी और भारतीय नेतृत्व भी इसी उधेड़बुन में पड़ा है। आप मानें या न मानें, लेकिन अमेरिका – रूस गुट को आपस में भिड़ाकर और लंबे युद्ध में उलझाकर उन्हें कमजोर होने देने और खुद को दुनिया का नया थानेदार बनाने की जो चीनी चाल है, और उसके दृष्टिगत भारत की जो चुप्पी है, उससे अमेरिका-रूस दोनों की घिग्गी बंधी हुई है। शायद भारत भी चीन को पछाड़कर यही मंसूबा पाले हुए है। सच कहूं तो भले ही मुस्लिम आतंकवाद कभी अमेरिकी – ब्रिटिश एजेंडा रहा हो, लेकिन अब रूस- चीन गठबंधन भी इसी एजेंडे को आगे बढ़ाकर तेल के खेल में अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो को पटखनी देने की रणनीति अख्तियार कर चुका है। जिसका साइड इफेक्ट्स आज इजरायल झेल रहा है और कल भारत के समक्ष भी इजरायल वाली परिस्थिति को पैदा किया जा सकता है, यदि उसका ज्यादा झुकाव अमेरिकी गुट की तरफ हुआ तो । मसलन, पश्चिमी एशिया व मध्यपूर्व एशिया समेत दुनिया के इस्लामिक देशों और इसके कतिपय आतंकी शासकों का दुर्भाग्य यह है कि तेल से अर्जित समृद्धि का सदुपयोग वह अपने मुल्क के नागरिकों को ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ाने के बजाए उन्मुक्त उपभोग, धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद की भावना को पैदा करके उसको निर्यात करने में लगा दिया। क्योंकि उनके अंतर्राष्ट्रीय पॉलिटिकल बॉस को यही पसंद है। इससे इजरायल और भारत जैसे देशों की परेशानी बढ़ी, लेकिन वो यह भूल गए कि प्रकृति वही लौटाती है, जो हमलोग बांटते हैं। यही वजह है कि चाहे अमेरिका हो, रूस हो, चीन हो, या बड़े इस्लामिक मुल्क, जब प्रकृति उन्हें छद्मयुद्ध, युद्ध और आतंकवाद की सौगात वापस करने लगी है तो अब ये देश उसे संभालने-झेलने में असमर्थ ही नहीं हैं, बल्कि भौचक्के भी रह जा रहे हैं। आपको ईरान-इराक युद्ध याद होगा। ईरान- अमेरिकी जंग भी याद होगी। तालिबान (अफगानिस्तान) – अमेरिका युद्ध ज्यादा पुरानी बात नहीं हुई है। अमेरिका और सीरिया के बीच जो कुछ हुआ, या हो रहा है, वह सभी जानते हैं। जानकारों के मुताबिक, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक या मध्यपूर्व के देशों में अमेरिकी रणनीति यदि विफल हो रही है, तो उसके पीछे रूस की बहुत बड़ी भूमिका है। आज यदि अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस जैसे बड़े मुल्क इस्लामिक आतंकवाद कट्टरता की चपेट में हैं, तो इसके पीछे भी रूसी-चीनी अंतर्राष्ट्रीय शह ही है। दिलचस्प बात तो यह है कि पिछले 10 वर्षों में भारत ने अपनी रणनीति बदली है और खुद को उम्मीद से ज्यादा मजबूत बनाया है, इसलिए वह अब अंतर्राष्ट्रीय सत्ता संतुलन का केंद्र बन चुका है। भारत भी अब हथियारों के सौदागरों की टीम में शामिल होने को बेताब है। अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में चीनी चाल के दृष्टिगत ही भारत सरकार सोच- समझकर कोई कदम उठाती है।