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चौकीदार
समाज बन जाए, तो प्रशासन के कान भी सुनते हैं। बेशक सुक्खू सरकार का जीरो टॉलरेंस ‘चिट्टे’ के खिलाफ ऐलान-ए-जंग बन के चारों तरफ गूंज रहा, लेकिन असली चाबुक लिए कहीं जनता भी निकल पड़ी है। पंचायतों ने खिड़कियां खोल के देखा, तो सामने जिम्मेदारी नजर आई। सूचनाएं अब हर पहर का पहरा हैं, तेरे गुंबद हिलने की खबर तक रखती हैं। पहली बार आंखें और कानों के सामने ‘चिट्टे’ के खिलाफ एक मुहिम सी उभरने लगी है । यह एक सामाजिक आंदोलन की तरह बढने लगा और अब हर सुराग का पता लगाने की चेष्टा होने लगी है। बेशक पुलिस वर्षों से नशे के खिलाफ कार्य कर रही है, लेकिन पहले केवल ‘चिट्टा’ पकड़ा जा रहा था, अब समाज ने उस नेटवर्क को खोजना शुरू किया है जो हमारे घर तक पहुंच गया। अगर एक कल्याण अधिकारी चिट्टे का व्यापारी बन रहा है और एक पटवारी नशे की जमाबंदी कर रहा है, तो यह उद्योग की तरह हमारी मानसिकता में घुसा है । अब चेहरे नजर आने लगे हैं, तो कानून की पढ़ाई के बाद एक मोहतरमा वकील की दलील से नशे के घाट नजर आने लगे हैं । हैं बहुत सारे लोग जिनकी पनाह में पलता रहा है चिट्टा । यहां चिट्टे की गोद है, जहां बचपन से जवानी को मौत के घूंट पिलाने का सिलसिला आबाद है । हर खेप के पीछे अगर कोई है, तो हुजूम में पुलिस वाला या कोई मेडिकल डिग्री वाला भी मिल रहा है। पिछले छह महीनों में 50 करोड़ का चिट्टा पकड़ा गया, तो इससे सौ गुना आया होगा और वर्षों से रगों में घुस रहा, उसकी गवाही में कई श्मशानघाट और उजड़ती बस्ती में किसी घर में मां-बाप की सिसकियां ताकीद करती हैं। नेरचौक की नशा विरोधी महापंचायत का आयोजन एक बहुत सार्थक कदम है, जहां 44 पंचायतों का प्रण एक दीवार की तरह है, एक ललकार की तरह है । दरअसल भटके हुए युवाओं पर नजर रखने के लिए समाज तैयार हो रहा है। जहां आज का युवा खो रहा है, वहां से ढूंढ कर उसे वापस लाने के विकल्प भी तैयार करने होंगे। सरकारी तौर पर कई प्रयत्न और प्रसंग मिल जाएंगे, लेकिन सवाल यह है कि क्या हमारा अपना भाईचारा, सुबह-शाम मिलता है। क्या हमारे आंगन से पड़ोसी का आंगन मिलता है। क्या हमारे स्कूल के खेल मैदान पर बचपन अब जवानी तक चलता है। क्या गांव की छिंज में गांव का पहलवान, अपनों के सामने कोशिश करता है। हमने गांव का गीत-संगीत बदल दिया, रहन-सहन, खान-पान बदल लिया। हम पूछते नहीं कि कौन किधर जा रहा है। एक संपर्क की तलाश में हम सभी सियासत का पक्ष और पक्षधर हो गए। स्कूल का भाषण, मुख्यातिथि का अभिभाषण और राजनेताओं का महिमामंडन अब हमारी दौलत है | हमारे मुद्दे अब मुर्दा गवाही की नस्ल हो गए, हम अपने लिए हक हकूक के मालिक हो गए। सफलताओं के इस दौर में हमारी अपनी नस्ल पर सामाजिक विकृतियों का असर इस कद्र है कि कहीं हमने उन्हें बिल्कुल अकेला या सपनों की खीज से भर दिया। चारों तरफ अकादमियों और सपनों की आजमाइश संघर्ष में जो अकेला रह गया, उसे जिंदगी में बसाने के लिए सामुदायिक हाथ चाहिए।
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