येरुशलम वर्तमान में वारजोन तब्दील देश इजरायल ने प्राचीन इस्लामिक वाटर हार्वेस्टिंग तकनीकों को अपनाकर एक नई दिशा में कदम बढ़ाया है। यह तकनीक 12वीं सदी के बीच पानी की कमी वाले रेगिस्तानी इलाकों में खेती के लिए उपयोग में लाई जाती थीं । वर्तमान में यह अध्ययन बार- इलान विश्वविद्यालय और यरूशलम स्थित इजरायल एंटीक्विटीज अथॉरिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है। उन्होंने ईरान, गाजा, मिस्र, अल्जीरिया और इबेरिया के अटलांटिक तटों की पारंपरिक जल प्रबंधन और मिट्टी सुधार तकनीकों का अध्ययन कर इजरायल के भूमध्यसागरीय तटीय इलाकों में उनका उपयोग किया। इस शोध का उद्देश्य सूखे और पानी की कमी से जूझ रहे क्षेत्रों में खेती को बचाना और खाद्य असुरक्षा की समस्या को हल करना है। इन तकनीकों में उस पानी का उपयोग किया जाता है जो शहरी रिहायशी इलाकों या वर्षा जल संचयन से प्राप्त होता है । स्थानीय जैविक सामग्री और शहरी कचरे का उपयोग कर रेतीली मिट्टी की परत को उपजाऊ मिट्टी में बदला जाता है। इस मिट्टी में सब्जियां, खजूर, तरबूज और अंगूर जैसी फसलें उगाई जाती हैं। खास बात यह है कि इन तकनीकों में पानी का छिड़काव करने के बजाय जमीन के भीतर जमा पानी और बारिश के जल का उपयोग किया जाता है। इससे फसलों की जड़ों तक पानी की पर्याप्त आपूर्ति होती है, जिसमें बर्बादी बेहद कम होती है। इस अध्ययन ने दिखाया कि ये प्राचीन तकनीकें न केवल पानी की कमी को दूर करने में कारगर हैं, बल्कि रेगिस्तानी और सूखे इलाकों में खेती के लिए एक स्थायी समाधान भी प्रदान करती हैं। शोधकर्ताओं ने अपने शोधपत्र में उन मुस्लिम वैज्ञानिकों और किसानों का आभार व्यक्त किया है, जिन्होंने इन परंपरागत तरीकों को संरक्षित और साझा किया। शोधकर्ताओं का मानना है कि इन तकनीकों को अपनाकर आज के जलवायु परिवर्तन, पानी की कमी और खाद्य असुरक्षा जैसी वैश्विक समस्याओं से निपटा जा सकता है। यह अध्ययन पर्यावरण आर्कियोलॉजी जर्नल में प्रकाशित हुआ है और इसे वैश्विक स्तर पर सराहा जा रहा है।