नई दिल्ली। सर्वोच्च न्यायालय में बुधवार को न्याय की देवी की नई प्रतिमा लगाई गई । न्याय की देवी की मूर्ति की आंखों से पट्टी हटा दी गई है और उसके एक हाथ में तलवार की जगह संविधान ने ले ली है। सुप्रीम कोर्ट में जजों के पुस्तकालय में ये मूर्ति लगाई गई है। ताकि यह संदेश दिया जा सके कि देश में कानून अंधा नहीं है और गलती करने पर कड़ी सजा का भी प्रविधान है। आंखों पर पट्टी कानून के समक्ष समानता को दर्शाती है, जिसका अर्थ है कि अदालतें अपने सामने आने वाले लोगों की संपत्ति, शक्ति या स्थिति के अन्य चिह्नों को नहीं देख सकती हैं, जबकि तलवार अधिकार और अन्याय को दंडित करने की शक्ति का प्रतीक है। एक रिपोर्ट के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट में जजों की लाइब्रेरी में स्थापित की गई नई मूर्ति में आंखें खुली हैं और तलवार की जगह संविधान को बाएं हाथ में रखा गया है। इस कदम को औपनिवेशिक विरासत को पीछे छोड़ने के प्रयास के रूप में भी देखा जा रहा है, ठीक उसी तरह जैसे भारतीय दंड संहिता जैसे औपनिवेशिक युग के आपराधिक कानूनों को भारतीय न्याय संहिता से बदलकर किया गया था। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ का मानना है कि भारत को ब्रिटिश विरासत से आगे बढ़ना चाहिए और कानून कभी अंधा नहीं होता, यह सभी को समान रूप से देखता है। इसलिए, मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि न्याय की देवी का रूप बदला जाना चाहिए। सीजेआई चंद्रचूड़ का मानना है कि अब वक्त आ गया है। कि हम अंग्रेजी विरासत से आगे बढ़ें। उनके अनुसार, तलवार हिंसा का प्रतीक है, जबकि अदालतें हिंसा से नहीं, बल्कि संविधान के आधार पर न्याय करती हैं। इसलिए उन्होंने मूर्ति में तलवार की जगह संविधान रखने का निर्णय लिया। उन्होंने यह भी कहा कि कानून अंधा नहीं हो सकता। उसे सब कुछ देखना होता है, तभी निष्पक्ष न्याय हो सकता है। सीजेआई दफ्तर के सूत्रों के मुताबिक, चंद्रचूड़ चाहते थे कि भारत की न्याय प्रणाली अब अंग्रेजों की बनाई परंपराओं से हटकर अपने संविधान और मूल्यों के अनुसार काम करे । इसके पीछे उद्देश्य यह है कि लोगों को यह संदेश दिया जाए कि देश की न्याय व्यवस्था संविधान के अनुसार न्याय करती है, न कि हिंसा के प्रतीक के आधार पर । न्याय की देवी का इतिहास प्राचीन यूनान से जुड़ा है। यूनान में इन्हें जस्टिया कहा जाता था, और इन्हीं के नाम से जस्टिस शब्द बना। ब्रिटिश काल में 17वीं शताब्दी के दौरान एक अंग्रेज अधिकारी भारत में यह मूर्ति लेकर आए। अंग्रेजों ने इसे अपने न्यायालयों में इस्तेमाल करना शुरू किया और यह मूर्ति भारत के न्यायालयों का भी हिस्सा बन गई। आजादी के बाद भी इस मूर्ति को स्वीकार कर लिया गया, लेकिन अब इसे बदलने का वक्त आ गया है। इस बदलाव के साथ सुप्रीम कोर्ट ने यह संदेश दिया है कि भारत की न्यायपालिका अब कानून अंधा है जैसी पुरानी मान्यताओं से आगे बढ़ चुकी है। यह अब संविधान और कानून की स्पष्टता के आधार पर काम करेगी, ताकि सभी को निष्पक्ष और सटीक न्याय मिल सके। वहीं एक सूत्र ने बताया कि तलवार हिंसा का प्रतीक है, लेकिन न्यायालय संवैधानिक कानूनों के अनुसार न्याय करते हैं। सूत्र ने बताया कि न्याय के तराजू को दाहिने हाथ में इसलिए रखा गया है क्योंकि यह समाज में संतुलन का प्रतिनिधित्व करता है और यह विचार कि किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले न्यायालय दोनों पक्षों के तथ्यों और तर्कों को तौलता है।